Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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म्लेच्छ सरदार से वालिखिल्य को छुड़ाया
. १११
निद्रामग्न छोड़ कर प्रयाण किया । प्रातःकाल होने पर जब अतिथियों को नहीं देखा, तो कल्याणमाला खिन्न-हृदय से नगर में चली गई। रामभद्रादि नर्मदा नदी उतर कर विध्य प्रदेश की भयंकर अटवी में पहुँचे । पथिकों ने उधर जाने से इन्हें रोकते हुए, म्लेच्छों के भयंकर उपद्रव का भय बतलाया । किंतु यात्रीत्रय उधर ही चलते रहे । आगे चलते हुए उन्हें कंटकवृक्ष पर बैठे हुए पक्षी की विरस बोली रूप अपशकुन और क्षीरवृक्ष पर रहे हुए पक्षी की मधुर ध्वनिरूप शुभशकुन हुए, किन्तु उस ओर ध्यान नहीं दे कर वे चलते ही रहे । आगे बढ़ने पर उन्हें हाथी-घोड़े और उच्च प्रकार के विपुल अस्त्रशस्त्रादि से युक्त म्लेच्छों की विशाल सेना मिली। वह सेना किसी राज्य का विनाश करने के लिए जा रही थी। उस सेना के युवक सेनापति की दृष्टि सीताजी पर पड़ी। वह सीताजी का रूप देख कर विमो हत हो गया और विकार-ग्रस्त हो कर अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि---
। इन सामने आ रहे दोनों पुरुषों को बन्दी बना कर अथवा मार कर इस सन्दर स्त्री को '' मेरे पास लाओ।"
म्लेच्छ-सैनिकों ने रामभद्रादि पर आक्रमण कर दिया और बाण-वर्षा करते हुए उनके निकट आने लगे । लक्ष्मण ने राम से निवेदन किया--" आर्य ! जबतक इन दुष्टों का में दमन नहीं कर लूं तब तक आप दोनों इस वृक्ष की छाया में बिराजे। उन्हें बिठा कर लक्ष्मण ने धनुष संभाला और टंकार ध्वनि उत्पन्न की। धनुष की सिंहनाद से भी अधिक भयंकर ध्वनि सुन कर आक्रमणकारियों का दल लौट कर भागने लगा । म्लेच्छों की विशाल सेना के प्रत्येक सैनिक के मन में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि "जिस महावीर के धनुष की टंकार (नि) ही हमारे कानों के पर्दे फोड़ दे और बल साहस तथा सामर्थ की इतिश्री कर दे, उसके बाणों की मार कितनी भयानक एवं संहारक होगी ?" मलेच्छाधिपति के मन में भी यही विचार उत्पन्न हुआ। वह परिस्थिति का विचार कर और शस्त्रादि का त्याग कर, श्री रामभद्र के पास आया और कहने लगा;--
" देव ! कौशांबी नगरी के वैश्वानर ब्राह्मण का मैं पुत्र हूँ। मेरा नाम 'रुद्रदेव' है । म जन्म से ही क्रूर हूँ। चोरोजारी आदि अनेक दुर्गुणों की खान हूँ। मेरे मन में दयाकरुणादि शुभभाव तो आते ही नहीं । संसार में ऐसा कोई दुराचरण नहीं रहा, जो मैंने नहीं किया हो । एक बार चोरी करते हुए में पकड़ा गया। राजा ने मुझे प्राणदण्ड दिया
और मैं वधस्थल पर ले जाया जाने लगा, किन्तु एक दयालु श्रावक ने राजा को धन दे कर मुझे बचा लिया और मुझे समझाते हुए कहा ;---
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