Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जनकजी की सहायतार्थ राम-लक्ष्मण का जाना
की गई, परन्तु पुत्र का कहीं पता नहीं लगा । विवश हो नरेश ने पुत्री से ही संतोष किया और उसमें अनेक प्रकार के सुलक्षण तथा अनेक सद्गुणों के अंकुरित होने का पात्र समझ कर “सीता" नाम दिया। बालिका, रूप लावण्य युक्त बढ़ने लगी । धीरे-धीरे वह चन्द्रमा की प्रभा के समान कला से परिपूर्ण हुई । यौवनवय प्राप्त होने पर उसके रूप एवं सौन्दर्य में अपूर्व उभार आया । वह लक्ष्मीदेवी जैसी दिखाई देने लगी। जनक नरेश उसके योग्य वर की चिन्ता करने लगे। उन्होंने कई राजकुमारों को देखा, उन पर विचार किया, किन किसी एक पर भी उनकी दृष्टि नहीं जमी।
जनकजी की सहायतार्थ राम-लक्ष्मण का जाना
- उस समय जनक की भूमि पर आ कर कई म्लेच्छ उपद्रव करने लगे । जनकजी ने उन म्लेच्छों का दमन करने का प्रयत्न किया, किंतु सफलता नहीं मिली । म्लेच्छों के गक्षसी उपद्रव कम नहीं हुए । अन्त में जनक नरेश ने दशरथजी से सहायता पाने के लिए दत भेजा। दत ने दशरथजी को नमस्कार किया और अपने स्वामी का सन्देश सुनाते हए कहा--
"महाराज ! मेरे स्वामी ने निवेदन किया है कि मेरे लिये आप ही ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं और सुख-दुःख में सहायक हैं । जब मुझ पर संकट आता है, तो मैं आप का कुलदेव की नरह स्मरण करता हूँ। मेरे राज्य की सीमा से लगता हुआ अर्ध बर्बर देश है । उसके लोग म्लेच्छ हैं । उनका आचरण अनार्य एवं अशिष्ट है। मयूरशाल नगर में आतरंग नामक अत्यंत क्रूर प्रकृति वाला म्लेच्छ राजा है । उसके हजारों पुत्र शुक, मंकन और कंबोज आदि देशों पर अधिपत्य जमा कर राज कर रहे हैं। उनकी सेना शक्तिशाली है। अब वे मेरे राज्य पर आक्रमण कर रहे हैं और प्रजा तथा सम्पत्ति का विनाश कर रहे हैं । इसलिए निवेदन है कि मेरी सहायता कर के राज्य और प्रजा की रक्षा करने की कृपा करें।' यह सन्देश ले कर मुझे आपकी सेवा में भेजा है । आप ही का हमें विश्वास है।"
। दूत की बात सुन कर दशरथ नरेश ने युद्ध की तय्यारी प्रारंभ कर दी। श्रेष्ठजन, सज्जनों की रक्षा करने में सदैव तत्पर रहते हैं । युद्ध की तय्यारी देख कर राजकुमार रामचन्द्र, पिता के पास आये और नम्रतापूर्वक निवेदन किया;--
"पिता थी ! मैं अपने अनुज बन्धु के साथ युद्ध में जाऊँगा । आप यमें आज्ञा
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