Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इन्द्र की पराजय
गई । जन-संहार होने लगा। रावण ने सोचा--'बिचारे सैनिकों को मरवाने से क्या लाभ होगा । मुझ स्वयं को इन्द्र से ही भिड़ जाना जाहिए।' उसने अपने भुवनालंकार नाम के हाथी को आगे बढ़ाया और ऐरावत हाथी पर सवार इन्द्र के समक्ष उपस्थित हुआ। दोनों गजराजों की सूंडे परस्पर गूंथ गई । विशाल दाँत टकराए । जिससे उड़ती हुई चिनगारियाँ सब का ध्यान आकर्षित अरने लगी। दाँतों में पहिनाये हुए स्वर्णाभूषण टूट कर गिरने लगे और दाँतों के प्रहार से गंडस्थल से रक्तधारा बहने लगी। उधर दोनों योद्धा, धनुषबाण मुद्गर, शल्य आदि से एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। वे एक-दूसरे के अस्त्रों को तोड़ कर अपने प्रहार को शत्रु-घातक बनाने का यत्न करने लगे। बहुत देर तक घात-प्रतिघात होते रहने के बाद रावण ने लाग देख कर, अपने हाथी पर से छलांग मारी । वह इन्द्र के हाथी पर आ गया और उसके महावत को मार कर इन्द्र को दबोच लिया । बस, इन्द्र दब गया और रावण ने उसे बाँध कर बन्दी बना लिया। रावण विजयी हो गया और यद्ध रुक गया । अब रावण वैताढय के विद्याधरों की दोनों श्रेणियों का अधिपति हो गया था। वह विजयोल्लास में आनंदित होता हुआ, सेना सहित लंका में आया और इन्द्र को अपने कारागृह में बन्द कर दिया । जब इन्द्र के पिता सहस्रार को इन्द्र की पराजय और बन्दी होने की बात मालूम हुई, तो वह दिक्पालों सहित लंका में आया और रावण के समक्ष उपस्थित हो कर करबद्ध हो विनति करने लगा;
" नरेन्द्र ! आप महाप्रतापी हैं । आप जैसे प्रबल पराक्रमी से पराजित होने में मुझे या मेरे पुत्र को किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं है । एक योद्धा और पराक्रमी ही दूसरे योद्धा से लड़ता है । भयभीत हो कर अधीनता स्वीकार करना कायरों का काम है और साहसपूर्वक दुर्दम्य योद्धा से भिड़ जाना वीर पुरुष का ही कार्य है। विजय और पराजय होना दूसरी बात है । संसार में एक से एक बढ़ कर वीर योद्धा एवं पराक्रमी होते हैं। आप जैसे वीरवर से पराजित होने में हमें किसी प्रकार की लज्जा नहीं है । अब आप से मेरी प्रार्थना है कि आप उदारता पूर्वक मेरे पुत्र को छोड़ दें।"
“मैं इन्द्र को मुक्त कर सकता हूँ--यदि वह अपने दिक्पालों सहित इस नगरी की सफाई निरन्तर करने और सुगन्धित जल से छिड़काव करते रहने का आश्वासन दे । यदि वह स्वीकार करे, तो इन्द्र मुक्त हो कर अपना राज्य ग्रहण कर सकता है।"
रावण की उपरोक्त शर्त स्वीकार हुई और इन्द्र, रावण के कारागृह से मुक्त हुआ। . वह मुक्त हो कर रथनूपुर आ कर रहने लगा। किंतु पराजय का दुःख, महाशल्य के समान उसके हृदय में खटक रहा था। उसे अपना जीवन, मृत्यु से भी अधिक दुःख-दायक लग रहा था।
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