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वाले भिन्न अन्तर्यामी हैं, इस संशय पर भिन्न के पक्ष को बतलाते हुए एकमात्र परमात्मा के अन्तर्यामित्व का समर्थन करते हैं।
सप्तम अधिकरण मुण्डक में शौनक ने प्रश्न किया “कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते, सर्वमिदं विज्ञातं भवेत्" इस पर अङ्गिरा ने उत्तर दिया “ विद्ये वेदितव्ये" उनमें एक तो नाम रूपात्मक जगत का ज्ञान कराने वाली नामांश वेदादि विद्या रूपांशा अपरा विद्या है दूसरी "अथपरा यथातदक्षरमधिगम्यते" इत्यादि में कही गई विद्या है । वेदादि विद्या के विषय में तो कोई शंसय नहीं होता किन्तु परा विद्या के वियूष में संशय होता है कि इस प्रसंग में जिस परा का उल्लेख हैवह सांख्यमत सम्मत विद्या का है अथवा ब्रह्मविद्या का। "दिव्योह्यमूर्तः पुरुष" इत्यादि में जो पुरुष पद का प्रयोग किया गया है उससे तो सांख्य सम्मत विद्या की ही प्रतीति होती है ऐसा पूर्णपक्ष उपस्थित करते हुए सिद्ध करते हैं कि पुरुष के साथ अक्षर शब्द का भी प्रयोग है जो कि ब्रह्म का ही वाचक है अतः यह ब्रह्मविद्या का ही प्रसंग है ।
अष्टम अधिकरण
छान्दोम्य के सातवें प्रपाठक में श्रुति है "को न आत्मा किं ब्रह्म" उसी में आगे कहा गया-“यस्त्वेतमेवं प्रादेशमान्नमभिविद्यमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते" इस पर संदेह होता है कि उल्लेख्य वैश्वानर पद से ब्रह्म का प्रतिपादन संभव है या नहीं। यह वाक्य हिरण्यगर्भ की उपासना का है अतः वैश्वानर शब्द उन्हीं के लिए कहा गया है, यह तो पूर्वपक्ष है। सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि भगवान विरुद्ध धर्म संभव है अतः वह विभु होते हुए भी प्रादेशमात्र में हैं इस लिए यह शब्द उन्हीं का वाचक है ।
इसी अधिकरण में परिमाणविशेषण पर विचार करते हैं कि यह प्रादेशमात्र स्थल भगवान का स्वाभाविक या कृत्रिम, इसपर वेदार्थ चिन्तक चार ऋषियों के विचार प्रस्तुत करते हैं जिनमें केवल शब्दबल पर विचार करने वाले वेदव्यास हैं, शब्दार्थ पर विचार करने वाले जैमिनि हैं, शब्दोपसर्जन से अर्थ करने वाले आश्मरथ्य हैं तथा केवल अर्थ विचारक कादरि है इनमें से प्रादेशमात्र व्यापक भगवान हैं, अतः वैश्वानर उन्हीं का वाचक है इस व्यास मत को ही सिद्धान्ततः निर्णय करते हैं।