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सप्तम अधिकरण छान्दोग्य में "अस्यलोकस्य का गतिरित्याकाश इति" इत्यादि मे जिस आकाश की चर्चा है वह भूताकाश की है अथवा परमात्मा की इस संशय पर भूताकाश का पक्ष निर्धारित करते हुए सिद्धान्ततः परमात्मपरक ही निर्णय करते है।
अष्टम अधिकरण
छान्दोग्य के प्रथम प्रपाठक के मन्त्र "कतमासादेवतेति प्राण इति होवाच" इत्यादि में प्राणशब्द मुख्यप्राण वाची है अथवा परमात्मवाची ? इस संशय पर पूर्वपक्ष के रूप से मुख्य प्राण का समर्थन करते हुए, सिद्धान्ततः उसे परमात्मवाची निश्चित करते हैं।
नवन अधिकरण "अथयदतः परो दिवो ज्योतिः' इत्यादि में ज्योति शब्द प्राकृत ज्योति की ओर इंगन किया गया है या परब्रह्म की ओर इस संशय पर प्राकृत ज्योति पर विचार करते हुए परब्रह्म परक सिद्धान्त निर्णय करते हैं ।
दशम अधिकरण
कौषीतक ब्रह्मणोपतिणद् के इन्द्रप्रतर्दन संवाद में परमपुरुषार्थकामी प्रतर्दन को इन्द्र ने "प्राणोवा अहमस्मि" कहकर जिस तत्त्व का उपदेश दिया है वा जोवात्मा के वाचक प्राणवायु के लिए है अथवा परमात्मा के लिए इत्यादि संशय पर शंका समाधान पूर्वक परमात्मावाचक ही निर्णय करते हैं।
द्वितीय पाद प्रथम पाद में शब्द सम्बन्धी संदेहों का निवारण कर चुके अब इस पाद में अर्थ सम्बन्धी संदेहों का निराकरण करते हैं--अर्थ जीव जडात्मक दो प्रकार का है। इस वाद में जीव मम्वन्धी संदेह का निवारण करते हैं, तृतीय में जड़ सम्बन्धी तथा चतुर्थ में उभय सम्बन्धी संदेह का निवारण करेंगे।
प्रथम अधिकरण छान्दोग्य में "सर्व खाल्विदं" से लेकर 'मनोमयः प्राणशरीरः" इत्यादि में जीव को ही ब्रह्म रूप से उपासना कही गई है अथवा ब्रह्म की इस संशय पर