________________
( २६ ) तृतीय अधिकरण
ब्रह्म जगत का समवायि कारण भी हो या केवल निमित्त कारण ही है। इस संशय पर निमित्त कारण ही है ऐमा पूर्वपक्ष दिखलाते हुये सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि ब्रह्म समवायि कारण भी है । लोक में प्रायः समवाय कारण को विकृत देखा जाता है । किन्तु वेद में सर्व समर्थ ब्रह्म के समवायित्व और अविकृतत्व दोनों का वर्णन मिलता है अतः वह दोनों प्रकार का कारण है।
चतुर्थ अधिकरण
"ईक्षतेनशिब्दम" आदि पांच सूत्रों से विचार करते हैं कि सर्व वंदान्त वाक्यों का प्रतिपाद्य ब्रह्म है या नहीं।" यतोवाचो निवर्तन्ते" आदि में वेदान्त प्रतिपाद्य तत्त्व व्यवहारतीत बतलाया गया है अतः वह ब्रह्म नहीं हो सकता किन्तु “म ईक्षाञ्चक्रे' इत्यादि श्रुति में जगत्कर्ता की सृष्टि द्वारा व्यवहार्य होने की चर्चा है अतः ब्रह्म ही प्रतिपाद्य है। नेत्रादि से वह भले ही अग्राह्य हो किन्तु भगवान के विश्वास रूप बंद ही उसका प्रतिपादन कर रहे हैं।
पंचम अधिकरण
"आनन्दमयोऽभ्यासात्" इत्यादि आठ सूत्रों से विचार करते हैं कि तत्तरीय में अन्नमय आदि के वर्णन में जो आनन्दमय का वर्णन है वह अन्नभय आदि की तरह कुछ अन्य पदार्थ है अथवा ब्रह्म का वाचक है । इमपर पूर्व पक्ष के रूप में अन्य ही बतलाते हैं किन्तु सिद्धान्ततः निश्चित करते हैं कि अन्नमय आदि परमात्मा के विभूति रूप हैं और आनन्दमय परमात्मा ही है । इसको सिद्ध करने के लिए "ब्रह्मविदा प्नोतिपरम्" मत्यज्ञानअनन्तं ब्रह्म" मोऽश्नुते सर्वान् कामान्" आदि अनेक श्र तियों पर विस्तृत रूप से विचार किया है।
षष्ठ अधिकरण छान्दोग्य के प्रथम प्रपाठक में “य एणोन्तरा दित्ये आदि मंत्र से जिम हिरण्मय स्वरूप का चिन्तन किया गया है वह अधिकाप्ठ देवता शरीर का है या ब्रह्म का अथवा परब्रह्म का है ? इत्यादि संशय पर देवता शरीर की बात पूर्वपक्ष के रूपों में प्रस्तुत करते हुए सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि सूर्यमण्डलस्थ हिरपमय स्वरूप परमात्मा का ही है।