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माथा ६५ ] लब्धिसार
[ ५५ २. उदयावली के कर्म-परमाणुनों का उत्कर्षण नहीं होता। ( ज.ध. ७।२४४ एवं २४०, २४१, २४२ प्रादि ।)
३. बन्धे हुए कर्म अपने बन्ध समय से लेकर एक आवली काल तक तदवस्थ रहते हैं । ( अर्थात् बन्धावली सकलकरणों के अयोग्य है । )
४. बंधने वाले कर्म को अपने आबाधाकाल में निषेकरचना नहीं पाई जाती । (ज.ध.७।२५१)
५. अतिस्थापना-कर्मपरमाणुनों का उत्कर्षण होते समय उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति में निक्षेप नहीं होता, बह "प्रतिस्थापना" स्थिति कहलाती है.। अव्याघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना एकमावलीप्रमाण और उत्कृष्ट प्रतिस्थापना, उत्कृष्ट भाबाधाप्रमाण होती है, किन्तु व्याघातदशा में जघन्य प्रतिस्थापना पावली के पामरसातवें भागप्रमागा प्रौर परत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समयकम मावली प्रमाण होती है । ( ज.ध. ७१२५० )
६. निक्षेप-उत्कर्षण होकर कर्मपरमाणुगों का जिन स्थितिविकल्पों में पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है iअव्याघात दशा में जघन्य निक्षेप का प्रमाण एकसमय ( क. पा. सु. प. २१५ ) और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाणे उत्कृष्ट पाबाबा और एक समयाधिक पावली; इन दोनों के योग से हीन ७० कोटाकोटीसागर है। व्याघात दशा में जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण पावली के प्रसंख्यातवे भागप्रमाण है । (ल. सा. गा. ६१, ६२ एवं ज, ध. पु ८ पृ. २५३; ज. प. ७१२४५)
७. बन्ध के समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेक की सब की सब व्यक्तस्थिति होती है । इसका मतलब यह है कि अन्तिम निषेक की एकसमयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। उपान्त्य निषेक की एक समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेष स्थिति व्यक्त होती है । तथा विचरम लिषेक की दो समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेषस्थिति व्यक्त होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक नीचे जामे पर शक्तिस्थिति का एक-एक समय बढ़ता जाता है और व्यक्ति स्थिति का एक-एक समय घटता जाता है। इस क्रम से प्रथम निषेक की शक्तिस्थिति पीर व्यक्तिस्थिति का विचार करने पर व्यक्तस्थिति एक समय अधिक उत्कृष्ट आवावाप्रमाण प्राप्त होती है और इस व्यक्तस्थिति को पूरी स्थिति में से घटा देने पर जितनी शेष रहे उत्तनी शक्तिस्थिति प्राप्त होती है । इस प्रकार यह बन्ध के समय जंसी निषेक-रचना होती है उसके अनुसार विचार हुआ, किंतु उत्कर्षण से इसमें कुछ विशेषता आजाती है। यथा- उत्कर्षण द्वारा जिस निषेक की जितनी व्यक्तस्थिति बढ़ जाती है, उतनी उसकी शक्तिस्थिति घट जाती है । अपकर्षण करने पर जिस निषेक की जितनी व्यक्त स्थिति घट जाती है उतनी उसकी शक्ति स्थिति बढ़ जाती है। यह सब उत्कृष्टस्थितिबन्ध की अपेक्षा शाक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति का विचार है । उत्कृष्ट स्थितिवन्ध न होने पर जितना स्थितिबन्ध कम हो उतनी अन्तिमनिषेक की शक्ति-स्थिति होती है और शेष निषकों की भी इसी अनुक्रमसे शक्तिस्थिति बढ़ती जाती है । ( जयधवल ७।२५० )
८. अपकर्षण के समय उत्कर्षण नहीं होता, उत्कर्षण के समय अपकर्षण नहीं होता । अब इन सभी (पाठों) नियमों को ध्यान में रखते हुए गाथा ६५ को समझने के लिए उदाहरण देते हैं। मानाकि पावली-३ समय तथा विवक्षित कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४८ समय है तथा प्रारम्भ के १२ समय प्राबाधा के हैं; शेष ३६ समयों में निषेकरचना हुई है; तो प्रथमनिषेक की १३ समय