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५.४ ] लब्धिसार
[ गाथा ६५ करता है, क्योंकि इसके ऊपर शक्ति स्थिति नहीं है। जो जीव इसप्रकार निक्षेप करता है उसके उत्कृष्टनिक्षेप होता है । इस निक्षेपका प्रमाण समयाधिक प्रावलि और आबांधासे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण उत्पन्न होता है'।
अहवावलिगदवरठिदिपडमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदियणिसेगप्पहुदिसु णिक्वित्ते जेटुणिक्खे भो ॥६५।।
अथ-अथवा, पावलि व्यतीत हो जानेपर उत्कृष्ट स्थिति के प्रथम निषेकका द्रव्य बंधनेवाली उत्कृष्टस्थितिके द्वितीयादि निषेकमे निक्षेपण करनेपर उत्कृष्टनिक्षेप होता है।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्राबाधा और ए कसमयाधिक एकावलि इनसे न्यून जितनी उत्कृप्टकर्मस्थिति है उतना उत्कृष्ट निक्षेप है । अथवा, (इस "अथवा" शब्द से 'यहां प्राचार्यान्तर के मतानुसार निक्षेप का निरूपण किया गया है'; ऐसा ज्ञातव्य है) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने के पश्चात् बन्धावली को बिताकर उसमें प्रथम निषेक का उत्कर्षा किया । इस उत्कृप्यमागा निषेक के द्रव्य का, इस उत्कर्षण क्रिया के समय बद्ध उत्कृष्टस्थितियुक्त समयप्रबद्ध के द्वितीयादि समस्त निषेकों में निक्षेपण किया; किन्तु चरम पावलीप्रमाण स्थिति में निक्षेपण नहीं किया। ऐसा करने पर उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है और इस उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण एकसमयाधिक मावली और आबाधाकाल ; ( वर्तमान में बद्ध समयप्रबद्धका ) इन दोनोंके योग से हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है ।
ठिप्पण:।। १. ज. प. पु. ८ पृ. २५६ से २६१ । क. पा. सुत्त पृ. ३१८; ज. पु. ७ पृ. २४६ ; ज. घ. पु. ५ पृ. २५६ .
- २: यहां उत्कर्पण के विधान में इतना ज्ञातव्य है कि--१. उत्कर्षण बन्धके समय में ही होता है । अर्थात् जब जिसकर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्म के सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुगों का उत्कर्षण हो सकता है; अन्य का नहीं। उदाहरणार्थ-यदि कोई जीव साता प्रकृति का बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्ता में स्थित साता प्रकृति के कर्मपरमाणुगों का ही उत्कर्षण होगा, असाता के कर्म-परमाणुनों का नहीं। (ज, घ. ७।२५१)