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प्रस्तावना
परिमाणनिर्देश करनेवाली गाथाओं और संक्रम-विषयक गाथाओंके विना एकसौ अस्सी गाथाएं ही गुणधरभट्टारकने कही हैं, ऐसा माना जाय, तो उनके अज्ञानताका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए, अर्थात् २३३ ही गाथाओंको गुणधर-रचित मानना चाहिए।'
पाठक स्वयं अनुभव करेगे कि वीरसेनस्वामीका यह उत्तर चित्तको कुछ समाधानकारक नहीं है, खासकर उस दशामें-जबकि 'गाहासदे असीदे' की प्रतिज्ञा पाई जाती है और जबकि वीरसेनस्वामीके सामने भी उस प्रतिज्ञाके समर्थक अनेक व्याख्यानाचार्य पाये जाते थे ! दूसरी बात यह है कि प्रारम्भकी १२ सम्बन्ध-गाथाओं और श्रद्धापरिमाण-निर्देश करनेवाली ६ गाथाओं पर एक भी चूर्णिसूत्र नहीं पाया जाता है । तीसरी बात यह है कि उक्त अठारह गाथाओंके अधिकार-निर्देश करनेवाली दोनों गाथाओंके बाद चूर्णिकार कहते हैं कि 'एत्तो सुत्तसमोदारो' अर्थात् अब इससे आगे कसायपाहुडसूत्रका समवतार होता है। संक्रम-अधिकार वाली ३५ गाथाओंमेंसे ५ को छोड़कर शेष ३१ पर भी एक भी चूर्णिसूत्र नहीं पाया जाता । तथा उनमेंकी अनेक गाथाओंके कम्मपयडीके संक्रमणाधिकारमें पाये जानेसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि वे गाथाएं कसायपाहुडकी नहीं हैं। इन सब बातोंसे यही निष्कर्ष निकलता है कि उक्त ५३ गाथाएं गुणधर-रचित नहीं हैं और इसलिए वे कमायपाहुडकी भी अंग नहीं हैं। इस बातका पोषक सबसे प्रबल प्रमाण 'तिएणेदा गाहारो पंचसु अत्थेसु णादव्या' यह गाथांश है, जिसमें स्पष्ट रूपसे कहा गया है कि प्रारम्भके पाच अर्थाधिकारोंमें 'पेज्जं वा दोसो वा' इत्यादि तीन गाथाएं जानना चाहिए । अतएव उक्त ५३ गाथाओंको आचार्य नागहस्तीके द्वारा प्रणीत या उपदिष्ट मानना चाहिए। अथवा यह भी संभव है कि १८० गाथाओंमे पेज्जदोसपाहुडका उपसंहार कर चुकने के बाद प्रस्तावना, विषयसूची और परिशिष्टके रूपमें उक्त ५३ गाथाओंकी गुणधराचार्यने पीछेसे रचना की हो ।
३. अधिकारों के विषयमें मतभेद–कसायपाहुडके १५ अर्थाधिकारोंके वारेमे मतभेद पाया जाता है । कसायपाहुडकी मूलगाथा १ और २ में स्पष्ट रूपसे १५ अधिकारोंका निर्देश होने पर भी चूर्णिकारने 'अत्थाहियारो परणारसविहो अण्णण पयारेण 'कहकर उनसे भिन्न ही १५ अर्थाधिकार बतलाये हैं। यद्यपि जयधवलाकारने बहुत कुछ ऊहापोह के पश्चात् यह बतलाया है कि दोनों प्रकारोंमें कोई विरोध नहीं है, चूर्णिकारने 'अन्य प्रकारसे भी १५ अर्थाधिकार संभव हैं, कहकर उनकी एक रूपरेखा दिखाई है, सो उनके अनुसार और भी प्रकारसे १५ अर्थाधिकार संभव हो सकते हैं कहकर जयधवलाकारने एक और भी तीसरे प्रकारसे अर्थाधिकारोंका निरूपण किया है । पर अधिकारों के निर्देश करनेवाली दोनों गाथाओंपर गहराईसे विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि गुणधराचार्यके मतानुसार १५ अर्थाधिकार इस प्रकारसे होना चाहिए
तण्ण घडदे, सबधगाहाहि श्रद्धापरिमाणणिद्दे सगाहाहि सकमगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाम्रो चेव भगतस्स गुणहरभडारयस्स प्रयाणत्तप्पसगादो। तम्हा पुवुत्तत्थो चेव घेत्तव्यो ।
जयध० भा० १ पृ० १८३ ® देखो पृ० १३ । । देखो पृ० १४ और १५, तथा जयधवला भा० १ पृ० १६२ से १९६ तक ।