________________
प्रस्तावनी
वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जण गहत्थीणं । वागरण - करण भंगिय-कम्मपयडीपहा गाणं ||३०||
ε
अर्थात् जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके व्याकरणों के वेत्ता हैं, करण-भगी अर्थात् पिंडशुद्धि, समिति, गुप्ति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन और अभिग्रहकी नाना विधियोंके ज्ञाता हैं और कर्मप्रकृतियों के प्रधानरूपसे व्याख्याता हैं, ऐसे श्रार्यनागहस्तीका यशस्वी वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो । श्वे० पट्टावली में इन्हे आर्यनन्दिलक्षपणकका शिष्य बतलाया गया है।
दोनों आचार्यों की प्रशंसा में प्रयुक्त उक्त दोनों पद्योके विशेषण - पदों से यह भलीभांति सिद्ध है कि ये दोनों ही आचार्य श्रुतसागरके पारगामी सिद्धान्त ग्रन्थोंके महान् वेत्ता, प्रभावक, कर्मशास्त्र के व्याख्याता और वाचकवंश - शिरोमणि थे । इसलिए आ० वीरसेन के उल्लेखानुसार यह सुनिश्चित है कि ये दोनों आचार्य कसायपाहुडकी गाथाओंके मर्मज्ञ थे और उन दोनों के पासमें आ॰ यतिवृषभने उनका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था ।
I
1
आ० वीरसेनने यतिवृपभको आर्यमंक्षुका शिष्य और नागहस्तीका अन्तेवासी प्रगट किया है । यद्यपि शिष्य और अन्तेवासी ये दोनो शब्द एकार्थक माने जाते हैं, तथापि शब्दशास्त्रकी दृष्टि से दोनों शब्द अपना पृथक-पृथक महत्व रखते है । गुरुसे ज्ञान और चारित्र - विषयक शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करनेवालेको शिष्य कहते है । किन्तु जो गुरुसे ज्ञान और चारित्रकी शिक्षा प्राप्त करने के अनन्तर भी गुरुके जीवन पर्यन्त उनकी सेवा-सुश्रूषा करते हुए उनके चरण - सान्निध्य मे रहकर अनवरत ज्ञानकी आराधना करता रहे, उसे अन्तेवासी कहा जाता है ।
शब्द-व्युत्पत्तिसे फलित उक्त अर्थको यदि यथार्थ माना जाय, तो मानना पड़ेगा कि आ० वीरसेन-द्वारा प्रयुक्त दोनों पद अन्वर्थ और अत्यन्त महत्व - पूर्ण हैं ।
यहां यह प्रश्न स्वतः उठता है कि जब यतिवृषभने श्रार्यमक्षु और नागहस्ती, इन दोनों ही आचार्योंसे ज्ञान प्राप्त किया, तब क्या कारण है कि वे एकके उपदेशको पवाइज्जमान और दूसरेके उपदेशको अपवाइज्जमान कहें ? यतिवृषभ-द्वारा प्रयुक्त इन दोनों पदों के अन्तस्तल में अवश्य कोई रहस्य अन्तर्निहित है ?
दि० परम्परामें तो जयधवला टीकाके अतिरिक्त आर्यमंतु और नागहस्तीका उल्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं आया, किन्तु श्वे ० परम्परा में उनके जीवन परिचयका कुछ उल्लेख मिलता है । आ० आर्यमक्षुके विषय में बतलाया गया है कि एक बार वे विहार करते हुए मथुरापुरी पहुँचे । वहां पर श्रद्धालु, भक्त और निरन्तर सेवा सुश्रूपा -रत शिष्योंके व्यामोहसे, तथा रस- गारव आदिके वशीभूत होकर वे विहार छोड़ करके वहीं रहने लगे। धीरे-धीरे उनका श्रामण्य शिथिल हो गया और वे वहीं मरणको प्राप्त हुए ।
यदि यह उल्लेख सत्य है तो इससे यह भी सिद्ध है कि आर्यमंतुके साधु आचारसे शिथिल हो जानेके कारण उनकी शिष्य परम्परा आगे नहीं चल सकी । और यह सब यत. यतिवृषभके जीवन-कालमे ही घटित हो गया, अतः उन्होंने उनके उपदेशको अपवाइज्जमान कहा और नागहस्तीकी शिष्य परम्परा आगे चलती रही, इसलिए उनके उपदेशको पवाइज्जमान कहा । इस प्रकार आर्यमंतु और नागहस्ती समकालिक सिद्ध होते हैं और इसलिए श्वे० पट्टावलियोंमें जो दोनोंके बीच लगभग १५० वर्षोंका अन्तर बतलाया गया है, वह बहुत कुछ आपत्ति के योग्य जान पड़ता है ।
* देखो श्रभिधानराजेन्द्र 'अज्जमंग' शब्द |