________________
૨૭.
जीवामिगमत्र तीतानि विसदृशकरणे असंख्येयकरणे वा तादृशशक्तेरभावादिति तानि पुनः-संव दाई नो असंवद्धाइ, संवद्धानि स्वात्मनः गरीरसंलग्नानि न संवद्धानि स्वशरीरात् पृथगू भूतानि, स्वशरीराद पृथग्भूतकरणे सामामावादिति 'सरिसाई नो अमरिसाई" सदृशानि-स्वशरीर तुल्यानि नो असहशानि विरूपाणि विरूपकरणे सामयाभावात् 'विउव्वंति' विकुर्वन्ति "विउवित्ता' विकुर्वित्ता 'अण्ण मण्णस्स' अन्योऽन्यस्य 'कायं अभिणमाणा अभिडणमाणा' कायं-शरीरम् अभिन्नन्तोऽमें समर्थ होते हैं। 'ताई संखेजाई नो असखेजाई' ये मुद्गरादि रूपों से लेकर भिण्डिमाल तक के रूपों की जो नारक विकुर्वणा करते हैं वे संख्यात रूपों की बिकुर्वणा करते हैं असंख्यात रूपों की विकर्षणा नहीं करते हैं-अर्थात् नारक के अनेक रूपों की जो नारफ विकर्षणा करते हैं वे उनके विक्रुर्वित रूप संख्यात ही हो सकते है-असंख्यात नहीं होते है क्यो कि असंख्यात रूपों को चिकुर्षित करने की उनमें शक्ति नहीं होती है 'संघद्धाई नो असंबद्धाई' ये पिकर्षित हुए रूप उन नारक जीों के शरीर से संबद्ध होते हैं 'नो असंरद्धाई' असंबद्ध नहीं होते हैं । अर्थात् शरीर से अलग नहीं होते हैं। क्योंकि शरीर से पृथक् भूत करने में उनमें सामर्थ्य का अभाव रहता है-'सरिसाई नो असरिसाई' ये उनके द्वारा विकुर्षित किये रूप उनके ही अपने शरीर के तुल्य होते हैं असदृश -विरूप नहीं होते हैं क्योंकि विरूप करने की उनमें शक्ति का अभाव है 'विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा देयणं वा ४३शामी समर्थ हाय छे. 'ताईसंखेजाईनो अस खेज्जई' मा મુદ્ગર વિગેરેથી લઈને ભિંડિપાલ સુધીના રૂપની જે નારકે વિકુણા કરી શકવામાં સમર્થ હોય છે, તેઓ ય ખ્યાત રૂપની વિમુર્વણા કરે છે. અસંખ્યાત રૂપની વિકુણા કરતા નથી. અર્થાત્ જે નારકે અનેક રૂપોની વિકૃર્વ કરે છે. તે તેઓએ વિકર્ષિત કરેલા રૂપે સંખ્યા જ હોય છે. અસંખ્યાત હતા નથી કેમકે અસંખ્યાત રૂપની વિમુર્વણા કરવાની તેઓમાં શકતી જ હતી नथी. 'सबखाई नो असबदाइ' । विदित ४२१.मां आवेता ३२॥ में ना२४ वाना शरीरथी समर साय छे 'नो अमबद्धाइ' असाता नथी. અર્થાત્ શરીરથી જુદા હોતા નથી. કેમકે શરીરથી જુદા કરવામાં તેઓમાં साभाय ने। ममा २ छे. 'सरिसाईनो असरिसाइ' मा तसा द्वारा विनित કરવામાં આવેલા રૂપે તેમના પિતાના શરીરની બરાબર દેય છે અસદશ वि३५ खाता नथी. उभ qि३५४२पानी तमामा शतिना मला छे. विउवित्ता