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जीवा मिगमसूत्रे णं उडूं उच्चत्तेणं' अर्द्धयोजनं द्वे गव्यूते - ऊर्ध्वमुञ्चस्बेन 'पंचधणुसयाई' चिक्खं भेग पश्च मनुःशतानि विष्कम्भेण इदं परिमाणमेकस्प जाककटकस्य मोक्तम् । जगत्याः प्रायो वहुमध्यदेशमागे सर्वत्र जालकानि सन्ति ठानि च प्रत्येक मूर्ध्व मुच्चैस्त्वेन द्वेग, विष्कम्भेण पञ्चधनुःशतानीति । स कीदृश: ? इत्याह'सन्नरयणामए' सर्वरत्नमयः सर्वात्मना - सामस्त्येन रत्नमयो वज्ररत्नात्मकः 'अच्छे सहे कण्हे जान पडिरूवे' 'अच्छे' अच्छ:- स्वच्छ आकाशवत् 'सण्हे' श्लक्ष्णः 'ल'हे' लव्हः अत्र यावत्पदसंग्राह्याणि पदानि यथा - 'घट्टे महे' घृष्टो मृष्टः 'नीरए' नीरज: 'निम्मले ' निर्मलः 'णिष्पके' निपङ्कः 'णिक्कंकडच्छाए' निष्कङ्कटच्छायः' 'सप्पभे' समभः 'सस्सिरीए' सश्रीकः 'समरीए' समरीचः 'स उज्जोए' सोद्योतः 'पासादीए : ' प्रासादीयः 'दरिसणिज्जे' दर्शनीयः 'अभिरुवे' अभिरूपः 'पडीरूवे' पतिरूपः जाल कटकविशेषणपदानां पूर्ववदेवार्थः स्वयमेवोद्दनीयः । ५१
मूळम् - तीसे पणं जगईए उपि बहुमज्झदेसभाए, एत्थ एगा महई पमवरवेड्या पन्नत्ता, सा प पउमचरवेइया अद्धजोयणं उ उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणा मेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लहे जाव पडिरूवे' यह जालकटकजालसमूहजालपडि दो कोश ऊंचा है और पांच सौ धनुष का विस्तार वाला है | चौडा है यह जाल समूह जगती के प्रायः मध्यभाग में हैं और एक जालका छह प्रमाण कहा गया है । यह जालकटक किस प्रकारका है को कहते है ।
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'सव्त्ररणामए' यह जालकट सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छे है । आकाश एवं स्फटिक रत्न के जैसा परम निर्मल है । इलग है लष्ट है चावत प्रतिरूप है यहां यावत्पद से 'घट्टे मट्ठे णीरए, णिम्मले, जिपं के णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे' इन पदों का संग्रह हुआ है इनकी व्याख्या उपर में की जा चूकी है वहां से समझ लेना चाहिये ॥५१॥
જાલ સમૂહ જગતીના મધ્યભાગમાં છે. આ પ્રમાણુ એક જાળતું કહેલ છે. मालवा अारनु छे, ते हे छे. 'सव्व रयणामए' मा लस ट સર્વ પ્રકારે રત્નમય છે. સ્વચ્છ છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ નિર્દેલ છે,
वक्ष् छे, सष्ट छे, यावत् प्रति३ छे. अहीयां यावत्पथी 'घट्टे मट्टे जीए णिम्मले णिव के शिक्कांकड च्छाए, सापभे, सस्सिरीए समरीए, सउज्जोए, पासादीए, रिणिजे अभिवे' या होना सथ थयेस है, या यहानी व्याभ्या ५२ वामां भावी है तो ते त्यांथी समल क्षेत्री ॥ ४७ ॥