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प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सु. ५३ वनवण्डादिकवर्णनम्
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नाम् उपरि क्षिप्यमाणानाम् 'विकिरिज्जमाणाण वा इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानाम् 'परिभुज्जमानानाम् - परिभोगायोपभुज्यमानानाम्, 'भंडाओ वा भंड साहरिज्जमाणाणं' भाण्डात् एकस्माद् भाण्डात् पात्राद भाण्डं - माजनान्तरं संहियमाणानाम् कोष्ठादि लुटानाम् 'ओराला' उदाराः स्फाराः, से चामनोज्ञा अपिस्युरित्यत आह- 'मणुष्णा' मनोज्ञाः- मनोऽनुकूलाः, दच्च मनोज्ञत्वं कुतस्तत्राह'घाण' इत्यादि, 'घाणमणोणिम्बुसिकरा' घ्राणमनो निर्वृतिकराः एवं भूवास्ते 'सन्त्रओ समता' सर्वतः सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन 'गंधा अमिणिस्सर्वति' गन्धा अभिनिःस्रन्थि - जिघतामभिमुखं निःसरन्ति । श्रीगौतमः पृच्छति भवे एयारूवे सिया' भवेद् मणीनां वृणानां च कोष्ठपुटादि सदृशो गन्ध इति; भगवानाह - मराणाणवा' ये उपर उडाये जारहे हो, 'वकिरिज्जमाणाणवा' - इधर उधर ये बिखेरे जा रहे हो 'परिभुजाणावा' अपने अपने काम में इनका उपभोक्ता पुरुषों द्वारा उपयोग किया जा रहा है । 'भंडाओ वा भंड साहरिजप्रमाणान' वा' एकवर्तन से दूसरे बर्तन में लिये जा रहे हों उस समय इनकी 'गंधा' वास सुगन्ध 'ओराला' बहुत अधिक विस्तृत अवस्था में निकलती है एवं यह 'षणा' मनोनुकूल होती है क्यों कि यह गन्ज 'घाणमणणिव्बुसिक' प्राण इन्द्रिय एवं मनको एक प्रकार को शान्ति देनेवाली होती हैं हल प्रणयार का यह सुगन्ध 'सच्चओ समता अभिस्तिर्वति' अनुकूल वायु के चलने पर इनकी वाल सब ओर से चारों दिशाओं में अच्छी तरह से फैल जाती है 'अवे. एयारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! इन तृणों की ओर लणियों की सुगन्ध इन कोष्ठपुटादिकों की सुगन्ध जैसी ही होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'नोपसा ! जो इणडे मट्टे' हे गौतम! यह अर्थ 'विकिरिज्जमाणाणवा' आमतेम मे विभरवासां भावी होय 'परिभुज्जमाणाणवा' પાતપેાતાના કામમાં ઉપલેાકતા પુરૂષા દ્વારા ઉપયાગ કરતા હોય ‘મહામો षा भांडं साइरिज्जमानाणवा' ये वास भांधी मील वासभां सेवाभां भावता હાય તે વખતે તેને ગધ-વાસ સુગધ ોરા' ઘણી વધારે વિપુલ પ્રમાણમાં नीडजे छे तथा मे 'मगुण्णा' भोग होय छे, भरे से गंध 'घाणमण णिव्वुइकरा' प्रायेन्द्रिय सने भनने शांति साधव, वाणी होय छे, मा प्रहारनी मा सुगंध 'खव्वओ समंता अभिणिस्सव गति' अनुज एवनना वावाथी मधी तरधी यारे हिशाओम सारी रीते ईसाई लय छे. 'भवेश्यारूवे सिया' डे
હે ભગવન્ તેશુ આ તૃણ્ણાને મણિચેની સુગંધ આ કષ્ટપુટ વિગેરેની સુગંધ જેવી હેાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે