________________
3
६१२
जीवामिगमरने यासां वास्तथा जराजन्य शरीरकेशवैम्प्यरहिता इत्यर्थः, 'वंगवण्ण वाही दो. भग्गसोगमुक्काओ' व्यंगदुर्वर्ण व्याधिदौर्माग्य शोकमुक्ताः, तत्र विरद्धमझं व्यङ्गम् विकारवानवयवः दुर्वर्णो विकृतशरीरच्छविः, व्याधिः-ज्वरादिः दौमीग्यं शोश्व एतैर्मुक्ता रहिता स्तास्तथा, तेषां व्यङ्गादेः स्वप्नेप्यसंमवात् 'उच्चत्तेणय नराण थोवूगमूसियाओ' उच्चत्वेन च नराणां स्तोकेनोच्छ्रिताः, उच्चत्वेन च नराणां स्तोकमनं यथा स्यात्तथा उच्छ्तिा किञ्चि-यूनाष्ट धनुः शतोन्छया इत्यर्थः 'सभाव सिंगारागारचारुवेसा' स्वभाव जन्य एव शृङ्गारः स्वभावद्वारः प्रमाणो. पेत यथावस्थितसुन्दर शरीरावयवजन्यसौन्दर्यवान् नतु वाह्य रस्त्रभूषणादि जन्यः, प्रासाद २६, गिरि-वर-श्रेष्ठ पर्वत २७, दर्पण २८, ललित गज श्रेष्ठ २९, वृषभ ३०, सिंह ३१, एवं चमर ३२, इन सामुद्रिक शास्त्र प्रसिद्ध श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों को ये धारण करती है 'हंससरिसगइओ' हंस के जैसी इनकी गति-चाल होती है 'कोइलमधुर गिरसुस्तराओ' कोयल की मधुरवाणी के जैसा इनका सुन्दर मधुर स्वर होता है-'सव्वस्स अणुन. याओ ववगयलिपलिया, वंगवण वाही दोभग्गसोगमुक्कामो ये बहुत ही अनुपम सुन्दर होती हैं ये सथके लिये अनुनयविनयवाली होती है इनके शरीर में किंचित् भी शैथिल्य समुद्भव चर्म विकार नहीं होता अर्थात् शरीर में इनके खाल का कुकर-संकोच जाना रूप विकार नहीं होता। बाल इनके सफेद नहीं होते हैं-इन के अंग विकृत नहीं होते हैं अर्थात् हीनाधिक होने रूप विकार से रहित होते हैं-शरीर की छवि में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं आती है व्याधि से ज्वरादि रोग से ये सदा मुक्त रहती हैं दुर्भाग्य का इनके लेशमात्र भी नहीं होता है शोक का इनके नामो निशान भी नहीं होता है अर्थात् ये सदा हर्षित પ્રાસાદ ૨૨, ગિરિવર શ્રેષ્ઠ પર્વત ર૭, દર્પણ ૨૮, લલિતગજ-શ્રેષ્ઠ હાથી ૨૯, વૃષભ ૩૦, સિંહ ૩૧, અને ચમાર ૩૨, આ સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ શ્રેષ્ઠ सेवा मत्रीस तक्षयने तमे। धारा ३२ छ. 'हस सरिसगइओ' सना २वी तमानी गति-यास डाय छे. 'कोइल मधुरगिरसुस्सराओ' अयसनी मधुर पाएन । सु४२ सने मधुर यानी २१२-४४ डाय छे. 'सव्वस्म अणुनयाओ ववगयवलिपलिया, वंग दुबण वाही दोभगगसोगमुकाओ' તેઓ ઘણીજ અનુપમ સુ દર હોય છે. તેઓ બધા પ્રત્યે વિનયવાળી હોય છે. તેઓના શરીરમાં જરાય શિથિલતા યુકત ચર્મવિકારો હોતા નથી. અર્થાત્ તેમના શરીરમાં ચામડી સંકેચાઈ જવારૂપ વિકાર હોતે નથી. તેઓના વાળ સફેદ હોતા નથી, તેઓના અંગ વિકૃત હોતા નથી. અર્થાત્ જૂનાધિક હેવારૂપ