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जीवामिगमले फोदयतः तेषां नारकाणा मनिष्टैव विकुर्वणा भवतीति । 'वेउन्धियं सरीरं' वैशियं शरीरं भवति नारकाणाम् तदपि वैक्रिय मुत्तरवैक्रियम् 'असंघयणं' असंह जनम् अस्थयभावेन संहननामावाद उपलक्षणमेतत् भवधारणीयमपि वैक्रियशरीरं सिंहननवनितमेप भवति तथा-'हुंड संठाणं' हुण्डसंस्थानं तत् उत्तर वैक्रियनरी भवति, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवमत्ययत उदयभावात् । 'जीवो' कपिज्जीव: 'सव्वपुढवी सर्वांट रत्नप्रभादिनरकपृथिवीपु 'सव्वेनु ठिइविसे सेमु' सर्वष्वपिप स्थितिविशेषेषु जघन्यादि रूपेषु 'अस्साओ उववण्णो' असात:-असातोदयप. रिझलितउपपन्नः उत्पत्तिसमयेऽपि पूर्वभवमरणकालानुभूतमहादुःखस्यानुवृति भावात् उत्पत्त्यनन्तरमपि 'अस्साओचेव' असात एव असातोदयकलित एवं सकलमपि 'निरयभवं चयई निरयभवं त्यजति क्षपयति न तु कदाचिदपि मुखलेशसे उन नारकों के अनिष्ट ही विकुर्वणा होती है। 'वेडम्वियं सरी' नारक जीवों के जो शरीर होता है वह वैक्रिय ही होता है और वह वैक्रिय भी उत्तर वैक्रिय होता है । 'असंघयणं' यह उत्तर क्रिय शरीर बिना संहननका अस्थि आदि से शुन्ध-इसी तरह भवधारणीय क्रिय -शरीर भी संहनन विना का ही होता है। नरको में वह उत्तर वैक्रिय शरीर हुंड संस्थान वेढय अवयव वाला होता है क्योंकि वहां जन्म खेने से ही इनके हुण्ड संस्थान नाम कर्म का उदय रहता है। 'जीवो सन्ध पुढवीसु-सव्वेसु ठिइ बिसेसेसु अस्सामो उववष्णो' कोई जीव समस्तपृथिवियों में और जघन्यादि रूप स्थिति विशेषों में असातोदय युक्त उत्पन्न हुआ, उत्पत्ति काल में भी वह पूर्व भव में मरण काल में अनुभूत महा दुःखो की अनुवृत्ति के प्रभाव से उत्पत्ति के अनन्तर भी असाता वेदनीय के उदय से युक्त हुआ हो सम्पूर्ण निरयभव को समा. -- यथा त ना२ मनिष्ट विन य छे. 'वेउब्विय' सरीर' ना२५ જીને જે શરીર હોય છે, તે વૈક્રિય શરીરજ હોય છે. અને વૈક્રિયમાં પણ तमान उत्तरवैष्यि शरी२०४ डाय छे. 'असघयणं' मा उत्तर ठिय • शश२ સહનના હાડકા વિનાના હોય છે. એ જ પ્રમાણે ભવપારણીય શૈક્રિય શરીર હંડ સંસ્થાન અર્થાત્ બેઢબ અવયે વાળું હોય છે. કેમકે ત્યાં જન્મ
वाथी ५ तयार हु संस्थान नाम भनी मध्य २९ छे. 'ीवो सव्व पुढवीसु सव्वेसु ठिइ विसेसेसु अस्साओ उववण्णो' 4 अधणी पायोमा અને જઘન્ય વિગેરે રૂપે સ્થિતિ વિશેષમાં અસાતેદય યુક્ત ઉત્પન્ન થયે હોય, અને ઉત્પત્તિ કાળમાં પણ પૂર્વભવમાં મરણ સમયે અનુભવેલ મહા દુઃખાની