________________
-
-
४५०
जीवामिगम पर्याप्ताः, अपर्याप्ततागुणविशिष्टास्तु अपर्याप्ता इति । 'एवं जहा-पण्णवणापदे एवमुक्तक्रमेण यथा प्रज्ञापनापदे पृथिवी भेदो वर्णित स्तथैव अत्रापि विज्ञेयः तदेव प्रज्ञापना प्रथमपदं दर्शयति='सहा सत्तविहा पन्नत्ता स्निग्धाः सविधाः प्रप्ता पृथिव्यो द्विविधाः स्निग्धाश्च खराश्च । तत्र स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः खरा अणेगविहा पन्नत्ता' खराः पृथिव्योऽनेकविधा प्राप्ताः 'जब असंखेज्जा' यावद संख्येयाः पृथिव्य इति चादरपृथिवीकायिकान् उपसंहरन्नाह-'से तं वायरपुढवीकाइया' ते एवे वादरपृथिवीकायिका निरूपिताः । 'एवं चेय जहा पण्णवणापदे पृथिवीकायिक जिनको पर्याप्ति नाम कर्म का उदय होता है वे पर्याप्तक हैं और जितके पर्याप्त नाम कर्म का उदद्य नहीं होता है वे अपर्याप्तक हैं। 'एवं जहा पण्णदणापदे' प्रज्ञापना के प्रथम पद में जिस प्रकार से पृथिवी भेदों का वर्णन किया गया है उसी तरह से वह वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथथ पद में इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन है-'सहा सत्तविहा पण्णत्ता लक्षण पृथिवी सात प्रकार की कही गई है अर्थात् श्लक्ष्णा और खर पृथिवी के भेद से पृथिवी दो प्रकार की होती है इनमें लक्षणा धिरी सात प्रकार की है और 'खरा अणेगविहा' खर पृथिवी अनेक प्रकार की है यावत् 'असंखेज्जा' असंख्यात प्रकार की हैं से तं वायर पुढवीकाइया' इस तरह से यादर पृथिवी कायिक जीवों के सम्बन्ध में यह वर्णन किया गया है ‘एवं चेव जहा છે, તેઓ પર્યાપ્ત કહેવાય છે અને જેમને પણ નામ કર્મને ઉદય થતું नयी तमा अपर्या छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे' प्रज्ञायना सूत्रना पडेला પદમાં જે પ્રમાણે પૃથ્વી કવિ કેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પૃથ્વીકાચિકેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં આ સંબંધમાં એવું पन छे , 'सहा सत्तविहा पण्णत्ता' स] पृथ्वी सात रनी ही छे. અર્થાત્ શ્લફણ અને ખર પૃથ્વીના ભેદથી પૃથ્વી બે પ્રકારની હેય છે. તેમાં सक्ष्य पृथ्वी सात प्रा२नी अवामा भावी छे. अने 'खग अणेगविहा पण्णत्ता' ५२ पृथ्वी मने प्रारनी ही छ. यावत् 'असखेजा' असण्यात ४२नी छे. 'से तं बायर पुढवीकाइया' मा प्रमाणे मा१२ पृथ्वी थियि वाना समयमा मा पन ४२वामां आवे छ ‘एवं चेव जहा पण्णवणा