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प्रद्योतिका टीका प्र.१ उ.२ सु.२० नारकाणां श्रुत्पिपासास्वरूपम्
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मिनन्तः 'वेषणं उदीरेति' वेदनामुदीरयन्ति, कीदृशीं वेदनामुदीरयन्ति तत्राह 'उज्जल' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्ज्वलाम्- दुःखरूपल्या जाज्वल्यमानाम् सुखलेशेनापि वर्जितामित्यर्थः पुनः किं भूतां तत्राह - 'पगाढां' प्रगाढाम् प्रकर्षेण धर्मप्रदेश व्यपिता अतीच समवगाढम् 'कर्कशाम् कर्कशामिव कर्कशास् - कठोराम्, अयं भावः यथा कर्कशः पाषाण संघर्षः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयन्ति एवमात्ममदेशान चटयन्तीव वेदना संजायते सा कर्कशा तां फर्कशास् 'षड्यं' कटुकाम्
कामित्र बटुकाम्, पित्तप्रकोप परिकलितवपुपो रोहिणीं कटुकद्रव्- मिवो भुज्यमानाम् अतिशयेनापीतिजनिकामिति । 'फरुसं' परूषां मनसोऽतीव रूक्षताजनिउदीरेति' एक अनेक रूपों की विकुर्वणा करके ये आपस में एकदूसरे के रूपों के साथ उसे लड़ाकर शरीर में चोट पहुंचा कर वेदना उत्पन करते हैं वह वेदना 'उज्जलं' सुख के लेश से भी वर्जित होने के कारण अत्यन्त दुःख रूप से उन्हें जलाती रहती है 'पगाढ' मर्म प्रदेशों में प्रवेश कर के समस्त शरीर में व्यापक हो जाती है अतः वह प्रत्येक प्रदेश में समवगाढ होती है 'कक्कसं' बहुत अधिक कठोर होती हैजैसे कर्कशपाषाणखण्ड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड देता है - उसी तरह से वह वेदना भी आरन प्रदेशों को तोड सी देती है, अतः उसे यहां कर्कश कहा गया है । 'कडुयं' कटुक यह वेदना इसलिये कही गई है कि यह पित्त प्रकोप वाले व्यक्ति को जैसे खाई गई रोहिणी - औषधि विशेष - अप्रीति जनक होती है उसी प्रकार से वह वेदना अप्रीति जनक होती है 'फरुसं' वह नारको' के मन में अतीव रूक्षता की
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अण्णमणस्व कार्य अभिहणमाणा अभिदणमाणा वेयण उदीरे 'ति' अने४ ३योनी વિકા કરીને તેઓ પરસ્પરમાં એક બીજાના રૂપાની સાથે તેને લડાવીને શરીરમાં धन्न पडयाने वेदना उत्पन्न रे छे. ते वेहना 'उज्जलं '
સુખનાલેશથી પણુ રહિત હાવાના કારણે અત્યંત દુઃખ રૂપે તેને माती रहे छे 'पगाढां' भर्भ अशोभां प्रवेश ४रीने समस्त शरीरमां व्याप्त ' थ लय छे. 'ककस' घड़ी वधारे ठोर होय छे. प्रेम ४ पत्थरना टुअडानो સ'ધ શરીરના અવયવને તેડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે તે વેદના પણ मात्मप्रदेशाने तोडी नाथे छे. तेथी मडियां तेने हे हे. 'कड्यं' તે વેદનાને કટુ એ માટે કહી છે કે તે પિત્તપ્રાપ વાળી વ્યક્તિને ખાવામાં આવેલ રે.ડિણી (વનસ્પતિ વિશેષ) અપ્રીતિકારક હાય છે, એવી જ તે વેદના અપ્રીતિકારક હાય છે. ૩” તે નાફોના મનમાં અત્યંત રૂક્ષતા જનક હાય