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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ शु.२३ नरकेपु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५५. स्वभावजायाअपि वेदनायाः अति दुःसहलादिति प्रश्न:, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुदवीएं' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नमभायां पृथिव्याम् 'निरयपरिसामंतेसु' नरकारि सामंतेसु' नरकपरिसामन्तेषु नरकावासपर्यन्तवत्तिषु पदेशेषु 'तं चेव नाव महा. वेयणतरगा चेव' बादर पृथिवीकायिकाः, बादराफायिकाः, वादरतेजस्कायिकार बादर वनस्पतिकायिका जीवा महाकर्मतरा महाक्रियतरा महाश्रवतरा महावेदनतरा एवेति । 'एवं जाव अहे सत्तमा एवम् अनेनैव प्रकारेण यावद् अधः सप्तम्याम् शर्कराममात आरभ्य अधः सप्तम्या मणि सर्व विज्ञेयम् । । भी वे इसी प्रकार के जीवन से जीते है तो क्या वे उन नरकों के महा वेदनतर क्षेत्र स्वभाव अन्य वेदना के मोक्ता होते हैं? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-'हंता गोधमा !' हां गौतम ! 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढधीए' हल रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'निरयपरिसामंतेसु' नरकावाल तक के प्रदेशों में पृथिवीकाधिक ओदि जीव है वे 'तं घेव जाव महा वेषणतरका चेव उसी प्रकार के है-जैसा कि प्रश्न में पूछो गया है-अर्थात् महा कर्न तर है-क्योंकि वे पूर्व में महा क्रिया तर थे, महास्रवतर थे और वहां पहुंच कर भी वे ऐसे ही है-अतः वे वर्तमान, में वहां महा वेदना वाले ही हैं। ___ अब सूत्रकार इस्ल तृतीय प्रतिपत्ति के इस वित्तीय उद्देशक में जितने पदार्थ-जितना घषय कहे गये हैं उन सब को संग्रह करके प्रकट करने वाली ये गाथाएं कहते हैंપ્રમાણેના જીવનથી જીવે છે. તે શું તેઓ એ નરકમાં મહાદતર ક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવા વાળી વેદનાને ભેગવવા વાળા બને છે ?
मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ है 'हता गोयमा" है। गौतम ! 'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' मा रत्नप्रसाभार 'निरय. परिसाम तेसु' न२४पास सुधीना प्रदेशमा पृथ्थायि विगैरे छ। छे, त्या ''त' चेव जाव महा वेयणतरका चेव' सेवा प्रारना छे, २ प्रमाणे प्रत સૂત્રમાં કહ્યા છે. અર્થાત્ મહાકર્માતર છે. કેમકે તેઓ પૂર્વમાં મહાક્રિયાવાળા હતા. મહા આસવવાળા હતા, અને ત્યાં પહોંચીને પણ તેઓ એવાજ છે. તેથી તેઓ વર્તમાનમાં ત્યાં મહાદના વાળાજ છે.
હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજી પ્રતિપત્તિના આ બીજા ઉદેશામાં જેટલા પદાર્થો અર્થાત જે જે વિષયે કહ્યા છે, તે બધાને સંગ્રહ કરીને બતાવવા વાળી આ गया। ४. छे.. 'पुढवी मोगाहित्ता' त्यादि