Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
भयत्राता पतनीपिता, विद्याप्रद गुरु जौन ॥ मत्रदानि अरु अशनप्रद, पञ्च पिता छितिरौन ॥ ८८ ॥
हे राजन् ! भय से बचानेवाला, भार्या का पिता ( श्वशुर ), विद्या का देनेवाला ( गुरु ), मत्र अर्थात् दीक्षा अथवा यज्ञोपवीत का देनेवाला तथा भोजन ( अन्न ) का देनेवाला, ये पांच पिता कहलाते हैं ॥ ८८ ॥
राजभारजा दार गुरु, मित्रदार मन आन ||
पतनी माता मात निज, ये सब माता जान ॥ ८९ ॥
राजा की स्त्री, गुरु ( विद्या पढ़ानेवाले ) की स्त्री, मित्र की स्त्री, भार्या की माता ( सासू ) और अपने जन्म की देनेवाली तथा पालनेवाली, ये सब मातायें कहलाती हैं ॥ ८९ ॥
ब्राह्मण को गुरु वह्नि है, वर्ण विप्र गुरु जान ॥
नारी को गुरु पति अहै, जगतगुरू यति मान ॥ ९० ॥ ब्राह्मणों का गुरु अग्नि है, सब वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्रियों का गुरु पति ही है तथा सब संसार का गुरु येति है ॥ ९० ॥
तपन घिसन छेदन कूटन, हेम यथा परखाय ॥
शास्त्र शील तप अरु दया, तिमि बुध धर्म लखाय ।। ९९ ।।
जैसे अग्नि में तपाने से, कसौटी पर घिसने से, छेनी से काटने से और हथौड़े से कूटने से, इन चार प्रकारों से सोना परखा जाता है, उसी प्रकार से बुद्धिमान् पुरुष धर्म की भी परीक्षा चार प्रकार से करके फिर धर्म का ग्रहण करते हैं, उस धर्म की परीक्षा का प्रथम उपाय यह है कि - उस धर्म का यथार्थ ज्ञान देखना चाहिये अर्थात् यदि शास्त्रों के बनानेवाले मांसाहारी तथा नशा पीनेवाले आदि होते हैं तो वे पुरुष अपने बनाये हुए ग्रन्थों में किसी देव के बलिदान आदि का बहाना लगाकर "मांस खाने तथा मद्य पीने से दोष नहीं होता है" इत्यादि बातें अवश्य लिख ही देते हैं, ऐसे लेखों में परस्पर विरोध भी प्रायः देखा जाता है। अर्थात् पहिला और पिछला लेख एक सा नहीं होता है, अथवा उन के लेख में परस्पर विरोध इस प्रकार भी देखा जाता है कि एक स्थान में किसी बात का अत्यन्त निषेध लिखकर दूसरे स्थान में वही ग्रन्थकर्त्ता अपने ग्रन्थ में कारणविशेष को न बतलाकर ही उसी बात का विधान लिख देते हैं, अथवा चार प्रमाणों में से
१ - जन्म और मरण आदि का सब संस्कार कराने से सब शास्त्रों को जाननेवाला तथा ब्रह्म को जाननेवाला ब्राह्मण ही वर्णों का गुरु है किन्तु मूर्ख और क्रियाहीन ब्राह्मण गुरु नहीं हो सकता है || २ - इन्द्रियों का दमन करनेवाले तथा काञ्चन और कामिनी के त्यागी को यति कहते हैं ॥
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