Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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द्वितीय अध्याय ।
नगर शरीर रु जीव नृप, मन मत्रीन्द्रिय लोक || मन विनशे कछु वश नहीं, कौरव करण विलोक ॥ ८५ ॥ शरीररूपी नगरी में जीव राजा के समान है, मन मन्त्री अर्थात् प्रधान के समान है, और इन्द्रियां प्रजा के समान हैं, इस लिये जब मनरूपी मन्त्री नष्ट हो जाता है अर्थात् जीत लिया जाता है तो फिर किसी का भी वश नहीं चलता है, जैसे केर्ण राजा के मर जाने से कौरवों का पाण्डवों के सामने कुछ भी वश नहीं
चला । ८५ ॥
धर्म अर्थ अरु काम ये, साहु शक्ति प्रमाण ||
नित उठि निज हित चिन्तहू, ब्राह्म मुहूरत जाण ॥ ८६ ॥
को चाहिये कि अपनी शक्ति के अनुसार धर्म, अर्थ और काम का साधन करे तथा प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में उठकर अपने हित का विचार करना चाहिये, तात्पर्य यह है कि पिछली चार घड़ी रात्रि रहने पर मनुष्य को उठना चाहिये, फिर अपने को क्या करना अच्छा है और क्या करना बुरा है - ऐसा विचारना चाहिये, प्रथम धर्म का आचरण करना चाहिये, अर्थात् समता का परिणाम रख कर ईश्वर की भक्ति और किये हुए पापों का आलोचन दो घड़ी तक करके भाव - पूजा करे, फिर देव और गुरु का वन्दन तथा पूजन करे, पीछे व्याख्यान अर्थात् गुरुमुग से धर्मकथा सुने, इस के पीछे सुपात्रों को अपनी शक्ति के अनुसार दान देकर भोजन करे, फिर अर्थ का उपार्जन करे अर्थात् व्यापार आदि के द्वारा वन को पैदा करे परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि वह धन का पैदा करना न्याय के अनुकूल होना चाहिये किन्तु अन्याय से नहीं होना चाहिये, फिर काम का व्यवहार करे अर्थात् कुटुम्ब, मकान, लड़का, मात, पिता और स्त्री आदि से यथोचित करे, इस के पश्चात् मोक्ष का आचरण करे अर्थात् इन्द्रियों को वश में युक्त भाव के सहित जो साधु धर्म (दुःख के मोचन का श्रेष्ठ उपाय ) है उस को अंगीकार करे ॥ ८६ ॥
करके
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कौन काल को मित्र हैं, देश खरच क्या आय ॥
को मैं मेरी शक्ति क्या, नित उठि नर चित ध्याय ॥ ८७ ॥ यह कौन सा काल है, कौन मेरा मित्र है, कौन सा देश है, मेरी आमदनी कितनी है और खर्च कितना है, मैं कौन जाति का हूँ औ क्या मेरी शक्ति है, इन बातों को मनुष्य को प्रतिदिन विचारते रहना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य इन बातों को विचार कर चलेगा वह अपने जीवन में कभी दुःख नहीं पावेगा ॥ ८७ ॥
१ - इस इतिहास को पांडवचरित्रादि ग्रन्थों में देखो ॥ हुआ पन दश वर्ष के पश्चात् मूलसहित नष्ट हो जाता है, चुका है ॥
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२ - क्योंकि अन्याय से पैदा किया यह पहिले ३२ वें दोहे में कहा जा
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