Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय सामने जो व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है, वस्तुतः मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन उससे भिन्न होता है. उसे वह छुपाये रखता है. जैसा अंदर में वह है, उसे प्रकट नहीं करना चाहता. इस प्रकार के जीवन का राजनीति या चाणक्य-नीति में स्थान होगा, परन्तु आत्म-चिन्तकों की दृष्टि में ऐसा जीवन क्षुद्र जीवन है. कृत्रिमता-प्रेमी छल, बल और कल से काम लेता है. मनीषियों का कहना है—ये तीनों शूल हैं, बाण हैं, इन त्रिमुख बाणों से आत्मा आहत हो जाती है. इस तरह की त्रिकोण-आहत-आत्मा में सत्य की पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान कहाँ ? सत्य प्रतिबिम्बित नहीं, तो सरलता नहीं. सरलता नहीं तो निर्मलता कहाँ ? सरलता व निर्मलता नहीं तो आत्म-अर्पण नहीं. आत्म-अर्पण नहीं तो धर्म का प्रतिबिम्ब कहाँ ? प्रतिबिम्ब नहीं तो दिल के दाग कैसे मिटें ? बिना इसके मन में चमक कहाँ ? चमक नहीं तो आत्म-गुण की छाया कैसे पड़े ? और इसके बिना आत्मा में पवित्रता का उदय कैसे हो? स्वामीजी म. का मन, इतना निर्मल और बृहद् था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने दोष, उनके स्वच्छादर्श में देख सकता था. उनके मनकी स्वच्छता को देखकर मन कह उठता है : 'कैसा मन पाया था उन्होंने चांदनी-सा.' । उनके जीवन में गोपनीय तो कुछ था ही नहीं. जो कुछ था, वह एक खुली पुस्तक की तरह स्पष्ट था. कवि बच्चन के शब्दों में कहें, तो यों कह सकते हैं :
हम अपना जीवन अंकित कर, फेंक चुके हैं राजमार्ग पर, जिसका जी चाहे सो पढ़ ले, पथ पर आते जाते !
हम कब अपनी बात छुपाते !! सच है प्रारम्भ से अन्त तक उन्होंने कभी कुछ छुपाया ही नहीं था-अपने जीवन में ! वे स्व और पर के भेद-रहित बालक की तरह ही स्वच्छमना बने रहे !
उनकी प्रवचन-पद्धति:
स्वामीजी म० की धर्मदेशना की अपनी एक असाधारण प्रणाली थी. वे बात तो वही कहते थे जो अनादिकाल से मुनिजन कहते आये हैं. किन्तु उनके कहने में न तो दार्शनिक सूक्ष्मता होती थी, न अध्यात्मवाद की अज्ञेय गहराई और न लोकमानस के अनुरंजन की लोकैषणा. प्रवचन करते समय वे अन्तविलीन हो जाते थे. उनके वाक्य-वाक्य से उनके हृदय की शुचिता, सरलता, मृदुता, विरक्ति और आत्म-कल्याण की सहज स्पृहा टपकती थी. इसलिए टपकती थी कि आगम समर्थित संयममूलक व्याख्यामय उनका आचरण था ! वे आदर्श और व्यवहारके पार्थक्य में विश्वास नहीं करते थे. यही कारण था कि उनकी वाणी न एकांत हवाई आदर्श तक सीमित रहती थी और न आदर्श निरपेक्ष व्यवहार मात्र का अनुसरण करती थी. उनके प्रत्येक प्रवचन में आदर्श और व्यवहार का अद्भुत संमिश्रण रहता था, जो उपदेशक श्रोतृवर्ग की आसपास की परिस्थितियों, जीवन-प्रणालियों और मानसिक स्थितियों से अनभिज्ञ होता है, उसका उपदेश अन्य दृष्टियों से कितना ही प्रशस्त क्यों न हो, श्रोताओं के जीवन को प्रभावित नहीं कर सकता. उससे उन्हें जीवन की दिशा नहीं मिलती और न वे सही व सीधी राह ही पा पाते हैं. सूक्ष्मदर्शी स्वामीजी इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे. अतएव उनकी देशना जीवन को गहराई से स्पर्श करने वाली होती थी. उनकी वाणी से श्रोताओं के जीवन की समस्याएँ सुलझती थीं. उन्हें जीवन की सही दिशा मिलती थी. स्वामीजी की भाषा में कोई बनावट नहीं थी. अलंकारों से सुसज्जित होकर वह प्रकट नहीं होती थी. सरल, सुगम, सुबोध अन्तस्तल से निःसृत होती थी और श्रोता के अन्तर् तक पहुंचकर उसे उबुद्ध कर देती थी. अपढ़ से अपढ़ श्रोता भी
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