Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्रीमिश्रीमल ‘मधुकर' : जीवन-वृत्त : २१ "महाराज, जो पूजी पास में थी, वह मैं आस-आस में जुवे के दाव पर लगाता रहा. इस तरह सब कुछ खो दिया. अब स्थिति यह है कि कभी-कभी अन्न के दाने भी पेट के लिए नसीब नहीं होते हैं. ज्ञान-बोझिल और शुष्क ज्ञानी ऐसे प्रसंगों के लिए कह दिया करते हैं कि किसका काम कैसे चलता है, किसको दो जून रोटी मिलती है और किसको एक जून, इससे हमें क्या ? ये तो अपनी-अपनी जन्म-पत्रीके भोग हैं. इन्हें रोकर भोगो तो और हँसकर भोगो तो-भोगने तो होंगे ही' ! परन्तु ऐसे प्रसंगों पर भी मुनिश्री का व्यक्ति के प्रति एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार व अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि-कोण होता था. जो उनकी दयार्द्रता का परिचायक था. वे कहा करते थेः "मनुष्य जब सन्मार्ग से उन्मार्ग की ओर अभिमुख हो और अभिमुख हो चुकने पर भी, जब वह पश्चात्ताप की घड़ी में बरत रहा हो---उस समय उसे जीवन का सत्य दिखा देने का स्वर्णावसर होता है ।" . उस धन हारे जुवारी को उन्होंने आत्मीयतापूर्ण भाव से कहाः “धन हार गये तो क्या हुआ, अब उस पथ को तज दो. दूसरा विचारपूर्ण पथ अंगीकार करो. हार और जीत तो जीवन में लगी ही रहती है. सम्पूर्ण जीवन ही एक व्यापार है. व्यापार में हानि और लाभ, दिन-रात के समान अवश्यंभावी हैं. बिना महनत किये कमाई करने की सोचने पर ऐसा हो ही जाया करता है. अब ही सही संकल्प कर लो-"श्रम करके ही कमाई करूंगा और वही मेरी सच्ची कमाई होगी—ऐसी ध्रुवधारणा बना लो. इस संकल्प से चलनेवाला कभी पराजित नहीं होता.' स्वामीजी महाराज की वाणी उसके हृदय में प्रवेश पा गई. उसने कुमार्ग तज दिया. पूज्य मुनिश्री के सम्पर्क व परिचय में आनेसे पूर्व वह जुवारी, अनेक सन्तों के पास अपनी पराजय व निराश स्थिति की कहानी कहने गया था. सर्वत्र उसे शुष्क ज्ञानोपदेश मिला था. इससे बह लगभग अनास्थावादी हा चुका था. पूज्य मुनिमना श्रीहजारीमलजी म. ने जुवारी की पीड़ा को आत्मीयता से सुना और फिर एक नेक सलाहकार की तरह हृदय-स्पर्शी उपदेश-वाक्यों से स्थायी प्रभाव डालकर उसका हृदय जीत कर जीवन-दिशा ही बदल दी थी. 'बहुधा हारा और निराश व्यक्ति ही अदृश्य-सत्ता को स्वीकार कर अपने अस्तित्व को उसमें लय कर देना चाहता है'. स्वामीजी म.ने जुवारी कीनब्ज संभाली एवं ताड़ना-तर्जना रहित सीख देकर सदा-सदा के लिए सात्विक भावों का पुजारी बनाकर उसे अमर आस्थावान् बना दिया. उनका यह सिद्धान्त था : ‘जीवन में व्यक्ति को व्यक्ति से मृदु व्यवहार करना चाहिए. क्योंकि व्यवहार की मृदुता संमुखस्थ में भी मृदुता और कोमलता ला देती है, स्वामीजी के व्यवहार से उसके हृदय पर जो प्रभाव पड़ा वह असाधारण था. वह सन्त-संस्कृति की ही विजय है. इस प्रकार पहले का जुवारी और अब का सन्त-भक्त, एक मात्र सन्त स्वामी हजारीमलजी मुनि को ही नमस्कार नहीं करता है, अपितु संत-संस्कृति की अविच्छिन्न परम्परा को नमस्कार करता है.' इस तरह वह व्यक्ति के प्रति ही आकृष्ट नहीं हुमा, समष्टि के प्रति भी दायित्व समझने लगा; बल्कि स्पष्ट कहा जाय तो वह व्यक्तिपूजक होकर भी गुणमूलक परम्परा का अनुयायी हो गया. बहुधा ऐसा कहा जाता है कि दूर से वस्तु या व्यक्ति में सौंदर्य और आकर्षण परिलक्षित होता है, समीप पहुंचते ही वह समाप्तप्राय हो जाता है. इसके विपरीत कभी-कभी जो निकट से सुन्दर दीखता है, दूर से वह उतना सुन्दर नहीं दीखता. पूज्य मुनिमना इन श्रेणियों से ही भिन्न थे. उन्हें जिसने नजदीक से देखा, उसने तो सदैव के लिये उन्हें अपना आराध्य और आदर्श माना ही, परन्तु जो दूर रहे, वे भी आकर्षित हुए बिना न रहे. वे व्यक्तिगत रूप से जितने महान् व दिव्य थे, सामूहिक जगत् में उससे भी महान् थे. वे दूसरों के सुख-दुःखको अपनेपन के भाव से सुनते थे ! अपनी जीवन-गाथा कहने वाला यही अनुभव करता था कि मेरा परम शुभचिंतक यदि कोई है, तो यही परमपुरुष है.
हम कब अपनीबात छुपाते ?
आज व्यक्ति दुमुही की तरह दुहरा व्यक्तित्व लेकर जी रहा है. दुहरे व्यक्तित्व का अर्थ है कृत्रिम जीवन. आज समाज के
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