________________ . 15 बालक जशवन्त के माता-पिता का नाम था सोभागदे और नारायण। उसके एक भाई भी था जिसका नाम था पदमसिंह / परिवार के धार्मिक वातावरण व संस्कारों के प्रभाव से बचपन से ही दोनों बालक धर्मानुरागी थे। संयोगवंश सं. 1687 में पं. नयविजय जी महाराज (अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि-उपाध्याय कल्याणविजयजी-पं. लाभविजयजी—पं. नयविजयजी) का चातुर्मास पाटण के निकट कुणगेर ग्राम में हुआ। वहां से विहार कर वे कनोड़ा गांव आये। उनकी वैराग्य रस से भरपूर वाणी का इन दोनों बालकों पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मन वैराग्य में स्थिर हो गया। दोनों बालक माता-पिता से आज्ञा ले नयविजयजी के साथ हो लिये। पाटण पहुँचने पर नयविजय जी ने सं. 1688 में दोनों बालकों को आचार्य हीरविजयसूरि के प्रपट्टधर आचार्य विजयदेवसूरि के पास दीक्षा दिलवाई। जशवन्त का नाम यशोविजय तथा पदमसिंह का नाम पद्मविजय रखा गया। गुरु नयविजय जी की निश्रा में नव श्रमणों का शिक्षण आरंभ हुआ। वे जैन शास्त्रों में पारंगत बने / यशोविजय ने अपनी तीव्र स्मरणशक्ति को और विकसित किया और अवधान क्रिया के अभ्यासी बने। सं. 1699 में राजनगर में संघ के समक्ष अष्ट अवधान का प्रदर्शन किया। युवा मुनि की विलक्षण प्रतिभा से वहां उपस्थित एक प्रतिष्ठित व्यापारी सेठ धनजी सूरा बहुत प्रभावित हुए। सेठजी ने पं. नयविजयजी से सादर अनुरोध किया कि ऐसे मेधावान युवा श्रमण को तो व्यापक ज्ञान आराधना में झोंक देना चाहिए, जिससे उसकी प्रतिभा परवान चढ़े और जैन शासन को हेमचन्द्राचार्य जैसा एक उद्भट विद्वान प्राप्त हो सके। इस काम के लिए उस समय के अध्ययन केन्द्र काशी जा कर ही गहन अध्ययन किया जा सकता था। पं. नयविजय जी को बात जच गई.। उनकी स्वीकृति मिलते ही सेठ धनजी सूरा ने काशी के किसी व्यापारी के नाम दो हजार चांदी की दीनारों की हुंडी लिख दी, जिससे अध्ययन काल में आवश्यक व्यय के कारण व्यवधान न पड़े।