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[ २.१ ] द्रव्यकर्म
द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से जगत् के तमाम जीव बंधे हुए हैं। ये तीन गाँठें टूट जाएँ तो जीव में से परमात्मा बन जाए !
सामान्य रूप से लोग क्या समझते हैं? खाने-पीने के जो भाव होते हैं, वे भावकर्म है और खाना खा लिया, वह द्रव्यकर्म । वास्तव में ऐसा नहीं है।
द्रव्यकर्म और भावकर्म सूक्ष्म होते हैं । द्रव्यकर्म मुफ्त में मिले हैं। वे आवरण के रूप में हैं। पूरी जिंदगी के कर्मों का सार आठ प्रकार के कर्मों में बँट जाता है, जिन्हें द्रव्यकर्म कहते हैं । उसके फल स्वरूप इस जन्म में उल्टे चश्मे (आवरण) और देह इस प्रकार से दो चीजें मिलती हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय, ये उल्टे चश्मे हैं, चार पट्टियाँ और नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य, ये चार देह के रूप में मिलते हैं । ये आठों कर्म जन्म से होते ही हैं ।
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देह और आत्मा जुदा हैं फिर भी एक भासित होते हैं, वह किस वजह से? द्रव्यकर्म के उल्टे चश्मों की वजह से । संसार खड़ा होने का मूल कारण द्रव्यकर्म ही हैं । उल्टे चश्मों की वजह से यों उल्टे भाव होने लगे । भावकर्म के बाद तरह-तरह की इच्छाएँ खड़ी हुई । द्रव्यकर्म के जैसे चश्मे होते हैं वैसा ही दिखाई देता है । किसी को हरा, किसी को पीला, तो किसी को लाल । हर एक के चश्मे अलग-अलग होने की वजह से अलग-अलग दिखाई देता है और उसी वजह से मतभेद होते हैं । चश्मे की वजह से, 'यह मेरी बहू है और यह मेरे ससुर,' ऐसा दिखाई देता है! यह है उल्टा ज्ञान और उल्टा दर्शन। द्रव्यकर्म बंधन की वजह से जो 'दृष्टि' उल्टी हो गई, उसी से ऐसा सब उल्टा दिखाई देता हैं ! उल्टे-सीधे भाव भी उसी वजह से होते हैं! नहीं तो खुद 'परमात्मा' है, फिर भी भीख माँगने का भाव कहाँ से होता है? क्योंकि ये उल्टे चश्मे हैं । बहरा, अंधा, गूँगा क्यों? भावकर्म बिगाड़े थे, उसके फल स्वरूप यह देह रूपी द्रव्यकर्म बिगड़ा हुआ मिला !
आठ कर्म क्या हैं?
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