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कषायों को मंद करके खपाना है। भगवान महावीर एक ही पुद्गल को देखते थे। अर्थात् प्रकृति को मात्र निहारो, निहारो, निहारो! वही सही स्वरूप-भक्ति है।
__जो विधियाँ बोले, वह फाइल नं-१ और शुद्धात्मा उसे जानता है कि क्या बोला गया! कहाँ-कहाँ कच्चा रहा? दोनों के कार्य अलग ही हैं। प्रकृति को निहारना, वह स्व-रमणता है। दादा का निदिध्यासन और स्मरण, वह आत्मरमणता ही कहलाती है क्योंकि ज्ञानीपुरुष ही खुद का आत्मा है ! जब तक मूल आत्मा पकड़ में नहीं आ जाता, तब तक 'प्रत्यक्ष ज्ञानी ही मेरा आत्मा है' ऐसा करके चल!
जो प्रकृति को निहारे, वह पुरुष और जो प्रकृति को निहार चुका है, वह परमात्मा!
मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार क्या कर रहे हैं, उसे देखते हैं। वही निहारना है पूरे दिन।
पुरुष और परमात्मा में क्या फर्क है? पुरुष परमात्मा बन रहा है। अभी तक फाइलें हैं न! परमात्मा को कुछ करने को बचा ही नहीं, केवल ज्ञातादृष्टा और परमानंदी। उनकी कोई फाइल रही ही नहीं!
पुरुष प्रेक्टिस करता है जुदापन की। गालियाँ देता है तब ज्ञान हाज़िर रखता है कि ' मैं कौन हूँ और गाली देनेवाला कौन है?' दोनों अकर्ता।
प्रकृति को भूलवाली कहना भयंकर गुनाह है।
प्रकृति गुणों से पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन) खड़ा हुआ है। पोतापणे को निहारे तो वह धीरे-धीरे कम होता जाता है। पोतापणा में पूरी प्रकृति को निहारना है।
अक्रम विज्ञानी दादाश्री ने तो प्रकृति का पूरा विज्ञान खोलकर रख दिया है, जो कि अन्य किसी भी जगह पर नहीं मिलता और अंत में 'मैं, बावा और मंगलदास' की स्पष्टता ने तो खुलासे की हद कर दी!