Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वितीय परिच्छेद
तत्राद्यकरणे नास्ति, छेदः स्थित्यनुभागयोः । अनन्तगुणया शुद्ध, या, कर्म बघ्नाति केवलम् ॥४८॥ श्रथ-तहां आदिके अधःकरणविषे स्थिति अनुभागका छेद नाहीं है अनन्तगुण विशुद्धताकरि केवल पुण्य कर्मकौं बांधे है ॥ ४८ ॥
द्वितीयं कुरुते तत्र, किंचित्स्थितिरसक्षयम् । शुभानामशुभानां च वर्द्धयन् हास्यन् रसम् ॥ ४६ ॥
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अर्थ - बहुरि तहां दूजा जो अपूर्वकरण हैं सो किछु स्थितिकांडक घात वा अनुभागकांडक घातक करें है। कैसा है सो अपूर्वकरण अतिशयकरि समय समय प्रति शुभ प्रकृतिनकौं बढ़ावे है अर अशुभ प्रकृतिनकू घटा है ॥४६॥
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अन्तर्मुहूतं कः कालस्तेषां प्रत्येकमिष्यते ।
श्रादिमे कुरुते तस्मिनांतरं करणं परम् ॥५०॥
अर्थ – उनमें प्रत्येक का अन्तर्मुहूर्त्त काल जानना, जानें आदिके
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प्रथममें आन्तर करणकौं कर है ॥५०॥
श्रान्तरे करणे तत्र, सहानन्तानुबंधिभिः ।
अन्तर्मुहूर्त कालेन मिथ्यात्वमपवर्तते ॥ ५१ ॥
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थ - तिस अन्तर करणविषै अन्तर्मुहूर्त कालकरि अनन्तानुबन्धी सहित मिथ्यात्व का अपवर्तन करें है ॥५१॥
मिथ्यात्वं भिद्यते भेदः, शुद्धाशुद्धविमिश्रकैः । ततः सम्यक्त्व मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वनामभिः ॥ ५२ ॥
- ताके अन्तर शुद्ध अशुद्ध करि मिले जे सम्यक्त्व मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व हैं नाम जिनके ऐसे भेदनि करि मिथ्यात्व भेदरूप
है ।
भावार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व करि मिथ्यात्व का द्रव्य मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वप्रकृतिरूप परिणमव है । ५२॥