Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टम परिच्छेद
[१८५: .
आगें सामायिकका स्वरूप कहैं हैं :जीविते मरणे योगे, वियोगे विप्रिये प्रिये ।
शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे, साम्यं सामायिकं विदुः ॥३१॥
अर्थ-जीवनेमैं अर मरनं मैं, संयोगमैं अर वियोगमें, अप्रियमैं अर ... प्रियमें, शत्रुमैं अर मित्रमैं, सुखमैं, अर दुःखमैं, समभावकौं सामायिक कहैं हैं।
भावार्थ-सर्व ही जीवना मरणा आदिको ज्ञेयपने समान जान करि रागद्वेष न करना सो सामायिक कहिए ॥३१॥
आगें स्तवका स्वरूप कहैं हैं ;जिनानां जितजेयाना, मनंतगुणभागिनाम् । स्तवोऽस्तावि गुणस्तोत्रं, नामनिर्वचनं तथा ॥३२॥
अर्थ-जीते हैं जितने योग्य कर्म जिननें ऐसे जे जिन अर्हन्त तिनका जो गुणनिका स्तोत्र तथा नामकी निरुक्ति करना सो स्तव कह्या है, कैसे है जिन अनन्त गुणके भजनेवाले ऐसे हैं।
भावार्थ-जिनदेवके अनंतज्ञानादि गुणनिका स्तोत्र पढ़ना "तथा कर्म वैरी निकौं जीतै सो जिन" इत्यादि नामनिकी निरुक्ति करना सो स्तव कहिए ॥३२॥
आगें वन्दनाका स्वरूप कहै हैंकारण्यहुताशानां, पंचानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिवंदनाऽवादि, त्रिशुद्धया त्रिविधा बुधैः ॥३३॥
अर्थ-कर्मवनकौं अग्नि समान जे पंचपरमेष्ठी तिनकौं नमस्कार करना सो मन, वचन, कायकी शुद्धि ताकरि तीन प्रकार वन्दना पंडितनि करि कही।
भावार्थ--पंचपरमेष्ठीकौं प्रमाण करना सा वन्दना कहिए ॥३३॥ आगें प्रतिक्रमणका स्वरूप कहैं हैं
द्रव्यक्षेत्रादिसम्पन्नदोषजालविशोधनम् । निंदागर्दा कियालीढं, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥३४॥..