Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादश परिच्छेद
[ २५७
हीयंते निखिलाश्चेष्टा विना भोजनमात्रया। गुप्तयो व्यवतिष्ठते विना कुत्र तितिक्षया ॥२७॥
अर्थ- भोजनरूप मात्रा विना समस्त चेष्टा नाशकौं प्राप्त होय है । जैसैं क्षमा विना मन वचन कायकी गुप्ति हैं ते कहां तिष्ठे हैं, कहू' भी न तिष्ठे हैं ॥२७॥
सीर्यते तरसा गात्रं जन्तोर्वजितमंधसा । विना नीरं क्व सस्यस्य कोमलस्य व्यवस्थितिः ॥२८॥ अर्थ-प्राणीका शरीर है सो भोजन विना जलदी क्षीण होय हैं। जैसैं जल विना कोमल धान की स्थिरता कहां होय, अपितु कहूं भी न होय है, ऐसा जानना ॥२८॥
यथाऽऽहारः प्रियः पुंसां न तथा किंचनापरम् । :: विक्रीयन्ते प्रियाः पुत्रास्तदर्थं कथमन्यथा ॥२६॥
अर्थ-पुरुषनिकौं जैसा भोजन प्रिय है तैसा और किछु प्रिय नाहीं; - जो ऐसें न होय तौ प्यारे पुत्र तिस आहारके अथि कैसें बेचिये है, तातें आहार सर्वतें प्यारा है ॥२६॥
यत्किचित्सुन्दरं वस्तु दृश्यते भुवनत्रये । तदन्नदायिना क्षिप्रं लभ्यते लीलयाऽखिलम् ॥३०॥
अर्थ-जो किळू वस्तु तीन लोकविर्षे सुन्दर देखिये है सो सर्व : वस्तु अन्न दान करता जो पुरुष ता करि लोला मात्र करि शीघ्र पाइये है ॥३०॥
वहुनाऽत्र किमुक्त न .. विना सकलवेदिना। पलं नाऽऽहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ॥३१॥