Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वादशम परिच्छेद
भावार्थ - जैसैं चोरनिकौं दूरहीतें त्यागै तौ पुरुष लूटै नाहीं तैसे: व्रतभंगके कारण स्थानादिक त्यागे ताका व्रत निर्मल पलै है ॥५३॥
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आगैं- शीलभंगके कारण जे द्यूतादिक तिनका निषेध करें हैं, तहां प्रथम द्यूतका निषेध कर हैं:
नानानर्थकरं द्यतं मोक्तव्यं शीलशालिना ।
शीलं हि नाश्यते तेन गरलेनेव जीवितम् ॥ ५४ ॥ ॥
अर्थ - शील करि शोभित जो पुरुष है ताकरि अनेक अनेक अनर्थनिका करनेवाला जो जूवा है सो त्यागना योग्य है, जातैं निश्चय सेती ताकरि शील नाशिए है जैसें विष भक्षण करि जीवन नाशिए है ॥५४॥
विषादः कलहो राटिः कोपो मानः श्रमो भ्रमः । पेशून्यं मत्सरः शोकः सर्वे द्य तस्य बांधवाः ॥ ५५॥
अर्थ - विषाद कलह राड क्रोध मान खेद संशय चुगली मत्सर भाव, शोक, ये सर्व जूवाके बन्धुजन हैं ।
भावार्थ - जहां जूवा होय है तहां पूर्वोक्त सर्व कुभाव अवश्य होय हैं ।। ५५ ।।
दुःखानि तेन जन्यन्ते जलानीवांबुवाहिना । व्रतानि तेन धूयन्ते रजांसीव चरणयुना ॥५६॥
अर्थ - तिस जूवा करि जैसे बादले करि जल उपजाइये है तैसें दुःख उपजाइए हैं अर जस पवन करि रज उडाइए है तैसें जूवा करि व्रत उडाइए है ।
भावार्थ -जवा करि नाना दुःख होय हैं अर व्रतनिका लेश भी न रहै है ॥५६॥
न श्रियस्तत्र तिष्ठत - द्यतं यत्र प्रवर्त्तत े ।
न वृक्षजातयस्तत्र विद्यन्त े यत्र पावकाः ॥५७॥
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