Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्दश परिच्छेद
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चतुर्दश परिच्छेद आगें द्वादश अनुप्रक्षाका वर्णन करै हैं, तहां प्रथम ही अनित्यानुप्रक्षाका स्वरूप क हैं हैंयौवनं नगनदी स्पदोपम, शारदांबुदविलासजीवितम् । स्वप्नलब्धधनवि भ्रमं धनं, स्थावरं किमपि नास्ति तत्त्वतः ॥१॥
अर्थ--यौवन तौ पर्वतकी नदीका चलना समान है, निरन्तर चल्या जाय है । बहुरि जीवना है सो सरदकालके मेघके विलास समान है, क्षण मात्रमैं विलय जाय है। बहुरि धन है सो स्वप्नमैं पाया जो धन तासमान झूठा है विछ भी (२.२ थिर नाहीं ॥१॥ विग्रहा गदभुजंगमालयाः, संगमा विगमदोष दूषिताः। संपदोऽपि विपदाकटाक्षिता, नास्ति किंचिदनुपद्रवं स्फुटम ॥२॥
अर्थ-शरीर तौ रोगरूपी सर्पनिका घर है, अर मिलाप है सो वियोगरूपी दोषिनिकरि दूषित है, वहरि संपदा हैं ते विपदाकरि देखी है (सहित है), प्रकटने किया भी वस्तु उपद्रवरहित नाहीं ॥२॥ प्रीतिकीत्तिमतिकांति भूतयः, पाकशासनशरासनास्थिराः । अध्वनीनपथिसंगसंगमाः, संति मित्रपितपुत्रबांधवाः ।.३॥
अर्थ-प्रीति अर कीर्ति अर बुद्धि अर कांति अर संपदा ये सर्व इंद्रधनुष समान अथिर हैं। बहुरि मित्र पिता पुत्र बांधव ये सर्व पंथीजननिका मार्गमैं संयोग होय तासमान है, सर्व शीघ्र ही विछरि जांग हैं। मोक्षमेकमपहाय कृत्रिमं, नास्ति वस्तु किमपीह शाश्वतम् । किंचनापि सहगामी नात्मनो, ज्ञानदर्शनमपास्य पावनम् ॥४॥
अर्थ-इस लोकमैं एक मोक्ष सिवाय अन्य करी भई वस्तु किछ भी नित्य नाहीं। बहरि निर्मल ज्ञान दर्शन सिवाय और किछ भी आत्माके साथ जानेवाला नाही, ज्ञानदर्शन ही सदा संग रहै है और शरीर तौ तहां तहां ही रहैं हैं ॥४॥ संति ते त्रिभुवने न देहिनो, ते न यांति समवत्तिमंदिरम् । शकचापखचिता हि कुत्र ते, ये भजति न विनाशांबुदाः ॥५॥