Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्दश परिच्छेद
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अकेला ही है, जन्मदिककौं अकेला ही पावै है, निश्चयतें मोक्ष अवस्था विना जीवका साथी कोऊ नाहीं ॥२५॥
ऐसें एकत्व भावनाका वर्णन किया। आगे-अन्यत्व भावनाकौं कहैं हैं :
अनादिरात्माऽनिधनः सचेतनो, विधायकः कर्मफलस्य भोजकः । हिताहितादानविमोक्षकोविद,
स्ततः शरीरं वितरीतमात्मनः ॥२६॥ अर्थ-आत्मा अनादि है, अनंत है, चेतन सहित है, कर्ता है, कर्मफलका भोक्ता है, हितका ग्रहण करनेवाला अहितका त्यागनेवाला है तातें ज्ञानस्वरूप आत्मातें शरीर विपरीत है ।
भावार्थ-शरीर नवीन उपज्या है, विनाशकिं है, जड़ है, ताहीतें कर्मका कर्ता नाहीं अर भोक्ता नाहीं अर हित अहितका ग्रहण करनेवाला नाहीं, ऐसे आत्माका अर शरीरका लक्षण न्यारा है, एक नाहीं ॥२६॥
सदापि यो यत्नशतैः प्रपाल्यते, न यत्र कार्यऽपि निजः स देहिनः । परः स्वकीयं किमु तत्र विद्यते,
प्रवर्त्तते यत्र ममेति मोहितः ॥२७॥ अर्थ-जिस संसार विषं जो शरीर अनेक उपायनिकरि सदा ही पालिए है सो शरीर भी जीवकै आपका नाहीं तहां और वस्तु आपकी कैसे होय जहां यहु मोहित भया “ये वस्तु मेरी है" ऐसें प्रवर्ते है ॥२७॥
विमुच्य जन्तोरुपयोगमंजसा, न दर्शनज्ञानमयं निजं परम । परत्र सर्वत्र ममेति शेमुषी,
प्रवर्तते मोहपिशाचनिमिता ॥२८॥ अर्थ-जीवका दर्शनज्ञानमय उपयोग विना निश्चयतें और पर पदार्थ आपका नाहीं, बहुरि सर्व पदार्थ विर्षे ये मेरे है ऐसी बुद्धि मोहरूप पिशाचकरि भई प्रवत्त है ॥२८॥