Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचदश परिच्छेद
[ ३६६
आगें परमात्माका ध्यान कैसे करना, सो कहैं हैं
बहिरंतः परश्चेति, त्रिधात्मा परिकीत्तितः । प्रथमं द्वितीयं हित्वा, परात्मानं विचितयेत् ॥५७॥
अर्थ- बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा ऐसे आत्मा तीन प्रकार कह्या है । तहां बहिरात्मा अर अन्तरात्माकौं छोड़के परमात्माका चितवन करे ॥५७॥
बहिरात्मात्मविभ्रांतिः, शरीरं मुग्धचेतसः ।
या चेतस्यात्मविभ्रांतिः, सोऽतंरात्मा विधीयते । ५८॥ २. अर्थ-जो मूढ़बुद्धिकै शरीर विर्षे आत्माकी भ्रांति है शरीर मैं आपो मानै है सो बहिरात्मा है । बहुरि चैतन्यके विकार जे रागादिक तिन विर्षे आपौ मान है सो अन्तरात्मा कहिए है ॥
इहां प्रश्न-जो और ग्रंथनिमैं तौ मिथ्यादृष्टिकौं बहिरात्मा कह्या है अर सम्यग्दृष्टिकौं अन्तरात्मा कह्या है इहां ऐसा कैसे कह्या ।
ताका उत्तर-देहमैं आपा मानना सो बहिरात्मा अर रागादिकमैं आपा मानना सो अन्तरात्मा ऐसे इहां तौ दोऊ त्यागने योग्य कहे। अर जहां अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिकौं कह्या तहां उपादेय कह्या, किछ आशयमैं विरोध नाहीं वक्ताकी इच्छातें अर्थभेद ही है, ऐसा जानना।
आगें बहिरात्माका स्वरूप कहैं हैं:श्यामोगौरःकृशःस्थूलःकाणःकुंठोऽव तो कती ।' वनिता पुरुषः षंढा विरूपो रूपवानहम् ॥५६॥ जातदेहात्मविभ्रांतेरेषा भवति कल्पना । विवेकं पश्यतः पुंसो न पुवर्देहदेहिनोः ॥६०॥ अर्थ-मैं काला हूँ, गौरा हूँ, पतला हूँ, मोटा हूँ, काणा हूँ,