Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 396
________________ पंचदश परिच्छेद रोकने योग्य ऐसा जो मन ताहि वश करें है सो धीर पुरुष निश्चय सेती ध्यानकौं करै है | है ॥ १०४ ॥ [ ३८१ भावार्थ- जाके वशीभूत मन है सो ही ध्यान करनेकौं समर्थ बाणैः समं पंचभिरुग्रवेगंधिद्धस्त्रिलोकस्थितजीववर्गः । न मन्मथस्तिष्ठति यस्य चित्त े, विनिश्चलस्तिष्ठति तस्य योगः ॥ १०५ ॥ अर्थ - तीन लोक मैं तिष्ठया जो जीवनिका समूह सो जानें उग्र तिन करि एकें काल वेध्या ऐसा तिष्ठै है ताकै ध्यान निश्चल तिष्ठे है वेग जिनका ऐसे जे पंच बाण जो काम सो जाके चित्त विषं न है ।। १०५।। रोषो न तोषो न मोषो न दोषो, न कामो न कम्पो न दम्भो न लोभः । न मानो न माया न खेदो न मोहः, यदीयेऽस्ति चित्तं तदीयेस्ति योगः ॥ १०६॥ अर्थ - जा पुरुषके चित्तमें क्रोध नाहीं, राग नाहीं, चोरी नाहीं अन्यायादि दोष नाहीं, काम नाहीं, भय नाहीं, दम्भ नाहीं, लोभ नाहीं, मान नाहीं, माया नाहीं, खेद नाहीं, मोह नाहीं ता पुरुषकै ध्यान होय हैं । के रागादि विकार हैं ताकै ध्यान न होय है ॥ १०६ ॥ प्रवर्द्ध मानोद्धतसेवनायां, जीवस्य गुप्ताविव मन्यते यः । शरीरकुट्यां वर्षांत महात्मा, हानाय तस्या यतते स शीघ्रम् ॥ १०७ ॥ अर्थ - वर्द्धमान है तीव्र दुःखरूप परणति जा विषं ऐसा जो शरीररूप कुट्टी ताविषें बन्दीखानेकी वसती समान वसतीकौं जो मान है

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