Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 402
________________ पंचदश परिच्छेद [३८७ तस्मादजायत नयादिव साधुवादः शिष्टाचितोऽमितगतिर्जगति प्रतीतः । विज्ञातलौकिकहिताहितकृत्यवृत्तराचार्यपदवीं दिधतः पवित्रम् ॥६॥ अर्थ-जैसें न्यायतें सत्य बोलना उपजै है तैसें तिस माधवसेन आचार्यतें शिष्यनिकरि पूजित लोक विर्षे प्रतीतिरूप श्री अमितगति आचार्य होता भया। कैसा है माधवसेन आचार्य जानी है लोक सम्बन्धी हिताहित कार्यकी प्रवृत्ति जानें, अर पवित्र श्रेष्ठ आचार्यकी पदवीकौं धारै है ॥६॥ अयं तडित्वानिव वर्षणं घनो, रजोपहारी घिषणांपरिस्कृतः । उपासकाचारमिमं महागनाः, परोपकाराय महोन्नतोऽकृतः ।७। अर्थ-यहू अमितगति आचार्य इस उपासकाचार शास्त्रकौं करता भया जैसे मेघ वर्षा हरै, मेघ तो बिजली सहित है आचार्य वुद्धिकरि युक्त है मेघ धूलकौं करै है आचार्य पापरजकौं हरै है मेघ लोकके उपकारकौं बरसै है आचार्यने भी परोपकारहीके अर्थ शास्त्र रच्या है यह आचार्य भी ज्ञानादिगुणनि करि ऊँचा है, मेघ ऊँचा है ऐसे मेघ समान उपयुक्त अमितगतिसूरि यह शास्त्र रचते भए ॥७॥ यदत्र सिद्धांतविरोधी भाषितं, विशोध्य सद्ग्राह्यमिमं मनीषिभिः । पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः, किमत्र शालिः परिगृह्यते जनः ॥८॥ अर्थ-इस शास्त्र विषं जो किछू सिद्धांत विरोध कह्या होय ताहि सोधिकें बुद्धिवाननिकरि यह शुद्ध ग्रहण करना योग्य है, जातें लोक विर्षे सादके वांछक जे पुरुष तिनकरि पलाल छोडिक कहा चांवल ग्रहण न कीजिए है ? कीजिए ही है ।।८।।

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