Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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३७२]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
नाहं कस्यापि मेकश्चिन्न, भावोऽस्ति बहिस्तनः । यदेषा शेमुषी साधोः, शुद्धध्यानं तदा मतम् ॥६६॥
अर्थ-मैं कोई बाह्य पदार्थका नाहीं अर बाह्य पदार्थ मेरा कोई नाहीं ऐसी यहु बुद्धि जब साधुकै होय तब शुद्ध ध्यान कह्या है ॥६१॥
रागद्वषमदक्रोध लोभमन्मथमत्सराः । न यस्य मानसे संति, तस्य ध्यानेऽस्ति योग्यता ॥७॥
अर्थ जाके मन विर्षे राग अर द्वष अर क्रोध अर लोभ अर मत्सर अर काम अर ईर्षाभाव ये नाहीं ता पुरुषकै ध्यान विष योग्यता है ॥७०॥
* रागद्वेषादिभिः क्षिप्तं, मनः स्थैर्य प्रचाल्यते । कांचनस्येव काठिन्यं, दीप्यमानहुं ताशनैः ।७१॥
प्रर्थ-रागद्वेषादि करि आक्षिप्त ऐसी मनकी स्थिरता चलायमान हो जाय है। जैसें देदीप्यमान अग्निकरि सुवर्णका कठिनपना चलायमान हो जाय तैसें।
भावार्थ- मन चाहे जेता स्थिर होय परन्तु रागद्वेषादि करि चलायमान हो ही जाय है ॥७१॥
विद्यमाने कषायेऽस्ति मनसि स्थिरता कथम् । कल्पांतपवनैः स्थैर्य, तृणं कुत्र प्रपद्यये ॥७२॥
अर्थ- जैसे प्रलयकालकी पवन विर्षे तृण है सो थिरताकौं कैसे प्राप्त होय तैसें कषाय भाव विद्यमान होत सन्तै मनकी थिरता कैसे होय ॥७२॥
अक्षय्यकेवलालोकविलोकितचराचरम् । अनन्तवीर्यशर्माणममूर्त मनुपद्रवम् ॥७३॥
* यह श्लोक क्चनिकाकी प्रतिमैं नहीं है, संस्कृत प्रतिसे लिखकर वचनिका कर दी है।