Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 383
________________ ३६८] श्री अमितगति श्रावकाचार अतिशयनि करि युक्त है । बहुरि पाया है पंचकल्याणक जानें ऐसा है । ५०-५१-५२ ॥ पिंडस्थो ध्यायते यत्र, जिनेन्द्रो हृतकल्मषः । तत्पिडपंचकध्वंसि, पिंडस्थं ध्यानमिष्यते । ५३॥ अर्थ-नाश किया है कल्मष कहिए पाप जानें ऐसा जो जिनेन्द्र सो पिंड जो परमौदारिक शरीर ताविषं तिष्ठया ध्याईए सो पिंडस्थ ध्यान कहिए । बहुरि कैसा है पिंडस्थ ध्यान औदारिकादि पंच शरीरनिका नाश करनेवाला है, सिद्धपदकौं देने वाला है ॥५३।। आगें रूपस्थ ध्यानकों क हैं हैं - प्रतिमायां समारोप्य, स्वरूपं परमेष्ठिनः । ध्यायतः शुद्धचित्तस्य, रूपस्थं ध्यानमिष्यते ॥५४॥ प्रर्थ-परमेष्ठिका स्वरूप प्रतिमा विर्षे भले प्रकार आरोपण करके ध्यान करता शुद्ध है चित्त जाका ऐसा जो पुरुष ताके रूपस्थ ध्यान कहिए है ॥५४।। आगें अरूपस्थ घ्यानकौं कहैं हैंसिद्धरूपं विमोक्षाय, निरस्ताशेषकल्मषम् । जिनरूपमिव ध्येयं, स्फटिकप्रति विवितम् ॥५५॥ . अरूपं ध्यायति ध्यानं, परं संवेदनात्मक्म् । सिद्धरूपस्य लाभाय, नीरूपस्य निरेनसः ॥५६ । अर्थ-दूर भये हैं समस्त कर्म जाके ऐसा सिद्ध भगवानका स्वरूप जैसा स्फटिक विषे प्रतिबिंबित जिनराजका स्वरूप, भावार्थ-स्फटिकमणि जैसा जिनबिंब होय तैसा ध्यावना; वर्ण गंध रस स्पर्श रहित ऐसा अमूर्तीक अर सर्व कर्म रहित ऐसा जो सिद्धभगवानका स्वरूप ताकी प्राप्तिके अथि केवलज्ञान स्वरूप अरूप ध्यानकौं ध्यावै है ॥ ५५-५६ ।।

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