Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
शुक्लं पृथक्तवीतर्कवीचारं प्रथमं मतम् । जिनरेकत्ववीतकोऽवीचारं च द्वितीयकम् ॥१४॥ अन्यत्सूक्ष्मनियं तुर्य, समुच्छिन्नक्रियं मतम् । इत्थं चतुर विधं शुक्ले, सिद्धि सोधप्रवेशकम् ॥१५॥
अर्थ-जिनदेवनि करि पृथक्त्ववितर्कवीचार पहला शुक्लध्यान कह्या है पृथक्त्व कहिये भिन्न भिन्नपने करि वितर्क जो श्रुत ताका विचार कहिए अर्थ शब्द अर योगकी पलटना ताकौं पृथक्त्ववितर्क विचार कहिये । बहरि एक पनांकरि श्रुतका जामैं चितवन होय पलटन न होय सो एकत्त्ववितर्क वीचार कह्या है । बहुरि योगनिकी क्रिया जामैं सूक्ष्म होय सो सूक्ष्मक्रिया तीसरा है । बहुरि नष्ट भई है योगनिकी क्रिया जामैं सो समुच्छिन्नक्रिय है, ऐसें च्यार प्रकार शुक्लध्यान मुक्ति महलके प्रवेश करावनेवाला कह्या है ।।१५।।
आगे ध्यानके स्वामी कहैं हैंआतं तनूमतां ध्यानं, प्रमत्तातगुणाश्रितम् । संयतासंयतांतानां, रौद्रं ध्यानं प्रवर्तते । १६॥
अर्थ--जीवनकै आर्तध्यान है सो छट्ठा प्रमत गुणस्थान पर्यन्त तिष्ठे है अर संयतासंयत जो पंचम गुणस्थान तहां ताई रौद्रध्यान प्रवर्त्तते है ॥१६॥
अनपेतस्य धर्मस्य, धर्मतो दशभेदतः। ..
चतुर्थः पंचमः षष्ठः, सप्तमश्च प्रवर्तकः । १७॥ अर्थ- आज्ञादिक दश प्रकार धर्म जो स्वभाव ताकरि युक्त जो धर्मध्यान ताका प्रवर्तावनेवाला-ध्यावने वाला चतुर्थ पंचम षष्ठम् सप्तम् गुणस्थानवी जीव जानना।
भावार्थ -यद्यपि चतुर्थादि गुणस्थाननिमैं परिणाम निकी निर्मलता वा वस्तु विचारमैं लीनता अधिक-अधिक है तथापि सामान्यपर्ने सर्व धर्मध्यान ही कह्या है ।।१७।।