Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 378
________________ पंचदश परिच्छेद अर त्यागर्ने योग्य अर ग्रहण करने योग्य जे तत्व तिनका ज्ञाता होय अर लौकिक आचारत अपूठो होय, अर काम भोगने विर्षे विरक्त होय, अर संसार-भ्रमणतें भयभीत हाय ॥२५।। लाभ अलाभ, सुख दुःख, शत्रु मित्र, प्रिय वस्तु अप्रिय वस्तु, मान अपमान, अर मरण जीवन विषं भी समान होय । भावार्थ-सर्वकौं ज्ञेयपना करि समान जानि इष्टानिष्टबुद्धि नाहीं करै ॥२६॥ निरालसी होय, उद्वेग रहित होय, जीती हैं इन्द्रियां जानें, अर जीत्या है आसन जानें, आसन बांधनेमैं हलै चलै नाहीं, अर सर्व अहिंसादि व्रतनिका करया है अभ्यास जानें, अर सन्तोष सहित प्रसन्नचित्त होय, अर परिग्रह रहित होय है ॥२७॥ अर सम्यग्दर्शनकरि शोभित होय, शांतपरिणामी होय, अर सुन्दर चित्तकौं रमावनेवाली वस्तु तिनमैं उत्साहरहित होय, निर्भय होय, देव गुरु धर्म विर्षे भक्त होय, कर्म वैरीके जीतनेकौं सुभट होय, वैरागी होय, पण्डित होय ॥२८॥ निदान रहित होय, काहूकी अपेक्षा लिये न होय, देहरूपी पीजरेके भेदने का इच्छुक होय, भव्य होय ऐसा अविनाशी स्थानके जानेका इच्छुक ध्याता सराहिये है ॥२६॥ ऐसें ध्याताका स्वरूप कह्या । आग-ध्येयकौं कहै हैं-- ध्येयं पदस्थपिण्डस्थरूपभेदतः । ध्यानस्थलङ्घनं प्राज्ञैश्चतुर्विधमुदाहृतम् ॥३०॥ अर्थ-ध्यानका आलङ्घन कहिए जाकौं ध्यानवि चिन्तिए ऐसा ध्येय, पदस्थ १ पिण्डस्थ २ रूपस्थ ३ अरूप ४ इन भेदनिकरि बुद्धिमाननिनै च्यार प्रकार कह्या है ॥३०॥ तहां प्रथम ही पदस्थका स्वरूप कहै हैं:

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