Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचदश परिच्छेद
संसारकारणं पूर्वं परं निर्वृतिकारणम् । इत्याद्यं द्वितयं त्याज्यमादेयमपरं बुधः ॥ १० ॥
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अर्थ - पहले आर्तरौद्र तौ संसारके कारण हैं । बहुरि पर जे धर्म शुक्ल ते मोक्षके कारण हैं इस हेतुतैं पंडितनिकरि आदिके आई, रौद्र दोनों त्यागने योग्य हैं । बहुरि और जे धर्म शुक्ल ते ग्रहण करना योग्य हैं ॥१०॥
तहां प्रथम ही आर्त्तध्यानके भेद कहैं हैं
प्रिययोगाऽप्रियायोगपीडा लक्ष्मीर्वािचितनम् । प्रात चतुविधं ज्ञेयं, तिर्यग्गतिनिबन्धनम् ॥११॥
अर्थ - इष्ट वस्तुका वियोग अर अनिष्ट वस्तुका संयोग अर रोगादिककी पीड़ा अर लक्ष्मीकी अभिलाषारूप जो विचार सो च्यार प्रकार आर्तध्यान तिर्यंच गतिका कारण जानना ॥ ११ ॥
आगें रौद्रध्यानका स्वरूप कहैं हैं
रौद्र हिंसा नृतस्तेयभोगरक्षणचतनम् ।
ज्ञेयं चतुविधं शक्त, श्वभ्रभूमिप्रवेशने ॥ १३ ॥
अर्थ – हिंसा अर झूठ अर चोरी अर विषयनिकी रक्षा इनिविषै हर्षरूप जो चितवन सो च्यार रौद्रध्यान नरकभूमि विषें प्रवेश करावने विषं समर्थ जानना योग्य है ||१२||
आगे धर्मध्यानके भेद कहैं हैं
श्राज्ञापायविपाकानां चितनं लोकसंस्थितेः ।
चतुर्षाऽभिहितं धम्यं, निमित्तं नाकशर्मणः ॥ १३ ॥
अर्थ - सर्वज्ञ वीतरागकी आज्ञा अर संसार दुःखका नाश अर कर्मनिका उदय इनका विचारना अर लोकके आकारका विचारना ऐसें च्यार प्रकार धर्मध्यान स्वर्गसुखका कारण कह्या है ॥ १३ ॥
आगे शुक्लध्यानके भेदनिकौं कहैं हैं