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________________ पंचदश परिच्छेद संसारकारणं पूर्वं परं निर्वृतिकारणम् । इत्याद्यं द्वितयं त्याज्यमादेयमपरं बुधः ॥ १० ॥ [ ३५६ अर्थ - पहले आर्तरौद्र तौ संसारके कारण हैं । बहुरि पर जे धर्म शुक्ल ते मोक्षके कारण हैं इस हेतुतैं पंडितनिकरि आदिके आई, रौद्र दोनों त्यागने योग्य हैं । बहुरि और जे धर्म शुक्ल ते ग्रहण करना योग्य हैं ॥१०॥ तहां प्रथम ही आर्त्तध्यानके भेद कहैं हैं प्रिययोगाऽप्रियायोगपीडा लक्ष्मीर्वािचितनम् । प्रात चतुविधं ज्ञेयं, तिर्यग्गतिनिबन्धनम् ॥११॥ अर्थ - इष्ट वस्तुका वियोग अर अनिष्ट वस्तुका संयोग अर रोगादिककी पीड़ा अर लक्ष्मीकी अभिलाषारूप जो विचार सो च्यार प्रकार आर्तध्यान तिर्यंच गतिका कारण जानना ॥ ११ ॥ आगें रौद्रध्यानका स्वरूप कहैं हैं रौद्र हिंसा नृतस्तेयभोगरक्षणचतनम् । ज्ञेयं चतुविधं शक्त, श्वभ्रभूमिप्रवेशने ॥ १३ ॥ अर्थ – हिंसा अर झूठ अर चोरी अर विषयनिकी रक्षा इनिविषै हर्षरूप जो चितवन सो च्यार रौद्रध्यान नरकभूमि विषें प्रवेश करावने विषं समर्थ जानना योग्य है ||१२|| आगे धर्मध्यानके भेद कहैं हैं श्राज्ञापायविपाकानां चितनं लोकसंस्थितेः । चतुर्षाऽभिहितं धम्यं, निमित्तं नाकशर्मणः ॥ १३ ॥ अर्थ - सर्वज्ञ वीतरागकी आज्ञा अर संसार दुःखका नाश अर कर्मनिका उदय इनका विचारना अर लोकके आकारका विचारना ऐसें च्यार प्रकार धर्मध्यान स्वर्गसुखका कारण कह्या है ॥ १३ ॥ आगे शुक्लध्यानके भेदनिकौं कहैं हैं
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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