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श्री अमितगति श्रावकाचार
संहनन जिनके पाइए ऐसे जे ध्यानके साधनेवाले पुरुष तिनि करि एक वस्तु विषै उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मनकी थिरता कीजिए सो ध्यान कहिए है ॥ ५ ॥
तदन्येषां यथाशक्ति, मनोरोधविधायिनाम् । एकद्वित्रिचतुः पंच, षडादिक्षणगोचरम् ॥६॥
अर्थ - बहुरि सो ध्यान, मनके रोकनेवाले निकैं यथाशक्ति एक दोय तीन च्यार पांच छह आदि समयनिकैं गोचर है ।
भावार्थ - उत्कृष्ट ध्यान उत्तम संहननवालेकै अन्तर्मुहुर्त्तका है औरनि यथाशक्ति एक आदि समय भी ध्यान होय है, ऐसा जानना ॥ ६ ॥ साधकः साधनं साध्यं, ५. लं चेति चतुष्टयम् । विवोद्धव्यं विधानेन, बुधैः सिद्धि विवित्सुभिः ॥७॥
अर्थ - मोक्षके जानने वा प्राप्त होनेके वांछक जे पंडित जन तिनकरि साधन करनेवाला साधक, अर जाकरि साधिए सो साधन, बहुरि साधनेयोग्य होय सो साध्य, अर साधनाका फल यह च्यार बात विधान सहित जानना योग्य है ||७||
सोही हैं हैं
संसारी साधको भव्यः, साधनं ध्यानमुज्व नम् ।
निर्वाणं कथ्यते साध्यं, फलं सौख्यमनश्वरम् ||८||
अर्थ- संसारी भव्य जीव तौ साधनेवाला साधक है । बहुरि निर्मल ध्यान है सो साधन है । बहुरि मोक्ष साधने योग्य साध्य है । बहुरि अविनाशी सुख है सो ध्यानका फल है ऐसा जानना ||८||
आ ध्यानके भेद हैं हैं
आत रौद्र मतं धर्म्यं, शुक्लं चेति चतुविधम् । ध्यानं ध्यानवतां मान्यैर्भवनिर्वाणकारणम् ॥६॥
अर्थ- - ध्यानवान जे मुनीश्वर तिनि करि मानने योग्य जे गणधरादिक तिनि करि आर्त्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ऐसें च्यार प्रकार को ध्यान संसारका अर निर्वाणका कारण कया है ॥६॥