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पञ्चदश परिच्छेद
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पञ्चदशः परिच्छेदः।
नियम्य करणग्रामं व्रतशीलगुणारतैः । सर्वो विधीयते भव्यविधिरेष विमुक्तये ॥१॥ न सा संपद्यते जंतोः सर्वकर्मक्षयं विना । रजोपहारिणो दृष्टिर्व लाहकमिवोजिता ॥२॥ समस्तकर्मविश्लेषो ध्यानेनैव विधीयते । न भास्करं विनाऽन्येन हन्यते शार्वरं तमः ॥३॥ यत्नः कार्यों बुधाने कर्मभ्या मोक्षकांक्षिभिः । रोगेभ्यो दुःखकारिभ्यो व्याधितैरिव भैषजम् ॥४॥
अर्थ-व्रत अर शील गुणनिमैं किया है आदर जिननें ऐसे भव्य जीवनि करि इंद्रियनिके समूहकौं रोकि करि यह सर्व पूर्वोक्त व्रतादि आचरण मुक्तिके अर्थि कीजिए है ॥१॥
सो मुक्ति सर्व कर्मनिके क्षयविना जीवकै न होय है जैसैं मेघविना रजकी उपसमावनेवाली वृष्टि न होय तैसें ॥२॥
बहुरि समस्त कर्मका नाश ध्यान ही करिए है जैसे सूर्य विना और करि रात्रि सम्बन्धी अन्धकार न निवारिए तैसें ॥३॥
तातें कर्मनतें मोक्षके वांछक जे पंडितजन तिनकरि ध्यान विर्षे यत्न करना योग्य है। जैसे रोगनतें छटनेके वांछक जे रोगी तिनिकरि औषधका यत्न करना योग्य है तैसें ॥४॥
आगै ध्यानका सामान्य लक्षण कहैं हैं:प्राधत्रिसंहतः साधरांतमौ हत्तिकं परम् ।
वस्तुन्येकत्र चित्तस्य, स्थैर्य ध्यानमुदीर्यते ॥५॥ ...अर्थ-आदिके वज्रवृषभनाराच वज्रनाराच अर्द्धनाराच ये तीन