Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 369
________________ ३५४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार कलुषयति कुधीनिरस्तधर्मा, भवशतमेकभवस्य कारणं यः । अभिलषितफलानिदातुमीशं, त्यजति तृणार्थितया सकल्पवृक्षम् ॥७॥ अर्थ-जो त्यागा है धर्म जानें ऐसा कुबुद्धि पुरुष एक भवके अर्थ अनेक भव बिगाडे है सो फलनिके देवे समर्थ जो कल्पवृक्ष ताहि त्यागे है अर तृणके अर्थि अभिलाषा करै है। भावार्थ-जो एक भव सम्बन्धी किंचित् विषय सुखके अर्थ धर्म छोडै है सो अनेकबार निगोदादि पर्याय निमैं भ्रमै है, तातें अनेक भव बिगाड़ना कह्या है, ऐसा जानना ॥७॥ शमयमनियमवताभिरामं, चरति न यो जिनधर्ममस्तदोषम् । भवमरणनिपीडितो दुरात्मा, भ्रमति चिरं भवकानने स भ.मे ॥७॥ अर्थ-जो पुरुष दूर किये है हिंसादि दोष जाने ऐसा जो जिनधर्म ताहि नाहीं आचरण करै है सो जन्म मरण करि दु:खित दुरात्मा बहुत काल ताई भयानक संसारवन विषे भ्रम है, कैसा है जिनधर्म कषायके अभावरूप शमभाव पर यावज्जीव त्यागरूप यम अर कालकी मर्यादारूप नियम अर अहिंसादि व्रत इनकरि सुन्दर है युक्त है ॥७६।। विगलितकलिलेन येन युक्तो, भवति नरो भुवनस्य पूजनीयः । शुचिवचनमनः शरीरवृत्त्या, भजति बुधो न कथं तमत्र धर्मम् ॥८०॥ अर्थ-जो पापरहित धर्म करि युक्त मनुष्य है सो लोककें पूजनीक होय है ता धर्मकौं इसलोकमैं पवित्र मन वचन कायकी परणति करि कौन पंडित जन न सेवै है ? सेवै ही है ॥८॥

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