Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार।
साधुलोकमहिता प्रमादतो, बोधिरत्र यदि जातु नश्यति । प्राप्यते न भविना तदा पुन, !रधाविव मनोरमो मणिः ॥७१॥ . अर्थ–इस लोकमैं साधु पुरुषनिकरि पूजित ऐसी सम्यक्तादिककी प्राप्ति रूप जो बोधि सो कदाचित् प्रमादतें नसि जाय तौ फेरि जीवनी करि न पाइए है। जैसें समुद्र विर्षे पड़ी सुन्दर मणि न पाइए मैते बोधि पावना दुर्लभ है ॥७॥ हन्त ! बोधिमपहाय शर्मणे, योऽधमो वितनुते धनार्जनम् । जीविताय विषवल्लरीं स्फुटं, सेवतेऽमृतलतामपास्य सः ॥७२॥
___ अर्थ-अहो ब खेदकी बातडे है ! जो अधम पुरुष सम्यक्तादिककी प्राप्ति रूप बोधिकौं छोड़ करि सुखके अथि धन उपार्जन करै है सो जीवनेके अथि अमृतवेलकौं छोड़क प्रगटपर्ने विषवेलिकौं सेवै है ॥७२॥ योऽत्र धर्ममुपलभ्य मुंचते, क्लेशमेष लभतेऽतिदारुणम् । यौं निधानमनधं व्यपोहते, खिद्यते स नितरां किमद्भुतम् ॥७३॥
अर्थ-जो पुरुष धर्मकौं पायकरि छोड़े है सो यहु अति भयानक क्लेशकौं पावें है। जैसें जो निर्मल भण्डारकौं छोड़े सो अत्यन्त खेदखिन्न होय ही होय, यामैं कहा आश्चर्य है ॥७३॥
मुंचता जननमृत्युयातना, गृह्णता च शिवतातिमुत्तमाम् । शाश्वती मतिमता विधीयते,
बोधिरदिपतिचूलिका स्थिरा ॥७४॥ अर्थ-जो जीव जन्म मरणकी तीव्र वेदनाकौं त्यागता है। बहुरि शाश्वती कन्याणकी संततिकौं ग्रहण करता है ता बुद्धिमान पुरुष करि दर्शनादिककी प्राप्ति रूप जो बोधि सो सुमेरुकी चूलिका समान स्थिर, कीजिए है।
भावार्थ-जो जीव दुःखकौं त्यागि सुखी भया चाहै सो सम्यग्दशंनादिककौं दृढ़ राखै यहु तात्पर्य है ॥७४।।