Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 360
________________ चतुर्दश परिच्छेद । [३४५ मिथ्यात्वदोवृत्त्यकषाययोग, प्रमाददोषा विविधप्रशाराः । कर्माश्रवाः सन्ति शरीरभाजां, जलाश्रवा वा सरसां प्रवाहाः ॥४७॥ अर्थ-मिथ्यात्व अर अविरत अर कषाय अर योग अर प्रमाद ये दोष स्वरूप नाना प्रकार जीवनिकै कर्माश्रवके कारण हैं, जस सरोवरनिके जलके आश्रवके कारण प्रवाह हैं तैसें । __भावार्थ-मिथ्यात्वादिक भाव कर्मबन्धके कारण हैं तातें इनकौं त्यागना, यह तात्पर्य है ॥४७॥ संवरणं तरसा दुरिताना, माश्रवरोधकरेषु नरेषु । आगमनस्य कृते हि निरोधे, कुत्र विशन्ति चलानि सरः सुः ॥४८॥ अर्थ-मिथ्यात्वादिक आश्रवनिकौं जे सम्यक्त्वादि भावनि करि रोकनेवाले पुरुष हैं तिनकै शीघ्र कर्मनिका रुकना रूप संवर होय है। जैसें जलनिके आवनका द्वार रोके सन्ते सरोवरनि विर्षे जल कहांतें आवै कहतें भी न आवै है ॥४८॥ नश्यति कर्म कदाचन जन्तोः, संवरणेन विना न गृहीतम् । शुष्यति कुत्र जलं हि तडागे, संगमने बहुधाऽभिनवस्य ॥४६॥ अर्थ-जीवकै ग्रहण किया भया जो कर्म है सो संवर बिना कदाच नाश न होय है, जैसे सरोवर विर्षे बहुत प्रकार नवीन जलका आगम होतसन्तै जल कहातें सूखै, अपि तु नाहीं सूखे है तैसें जानना ॥४६॥ योगनिरोधकरस्य सुरष्टे, रस्तकषायरिपोविरतस्य । यत्नपरस्य नरस्य समस्तं, संवृतिमृच्छति नूतनमेनः ॥५०॥

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