Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्दश परिच्छेद
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अर्थ- अहो संसार विर्षे सुख कब होय है। बालक तौ किछ हिताहितकौं न जाने है, बहुरि जवान तीव्र कामके दुःखकौं प्राप्त होय है । बहुरि बूढ़ा हैं सो अतिशय करि विकलताकौं भज है शक्तिर हित हो जाय है इच्छा बढ़ जाय है ऐसें सुख कोई अवस्थामें नाहीं, दुःख ही हैं ॥१७॥
न सोऽस्ति सम्बन्धविधिर्जगत्त्रये, समं समस्तैरपि देहधारिभिः । अवापि यो न भ्रमता भवार्णवे,
शरीरिणा कर्मनियंत्रितात्मना ॥१८॥ अर्थ-तीन लोक विष सो सम्बन्धका विधान नाहीं जो जीवनै समस्त देहधारीन करि सहित अनेकवार न पाया, कैसा है जीव संसार-समुद्र विर्षे भ्रमता है अर कर्मनिकरि बंध्या है आत्मा जाका ऐसा है ॥१८॥ यत्र चित्रविवर्तः परावर्त्यते, कर्मणानारतं भ्रम्यमाणो जनः । दुःखहं दुर्वचं मानसं कायिक, तत्र दुखं कि संसृतावश्नुते ॥१९॥
अर्थ-जिस संसारसमुद्र विषे कर्म करि निरन्तर भ्रमाया ऐसा जो जीव सो नाना प्रकार पर्यायनि करि उलट पलट कीजिए है ता संसार विर्षे दुर्वचन सम्बन्धी मन सम्बन्धी शरीर सम्बन्धी दुःसह दुःख कहा न भोगिए है, भोगिए ही है। ऐसा संसारका स्वरूप जाणि मोक्षका यत्न करना ॥१६॥
या प्रकार संसार भावना कहीं। आगें-एकत्व भावना कहैं हैंदेहबांधवनिमित्तमंगिना, पापकर्म विविधं विधीयते । ऐककेन बृहति विषह्यते, नारकी गतिमुपेपुषा व्यथा ॥२०॥
अर्थ-शरीर अर बन्धुजननिके पोषणेके अथि जीव करि पाप कर्म नानाप्रकार कीजिए है। बहुरि ताके फलतें नरकगतिकौं प्राप्त भया एक आप ताकरि ही पीड़ा सहिए है, शरीर कुटुम्बादिक कोऊ भेला हाय नाहीं ॥२०॥