Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
श्री अमितगति श्रावकाचार
भ्रमिए है । कैसा है संसारी जीव सदा अनेक चेष्टा करें है अर शरीरक ग्रहण करै है अर छोडे है || १३||
३३६ ]
श्वसति
स्वपिति
रोदिति सीदति खिद्यते, रुप्यति तुष्यति ताम्यति । लिखति दीव्यति सोथति नृत्यति, भ्रमति जन्मवने कलिलाकुलः ॥१४॥
अर्थ - पापकर्मकरि व्याकुल यहु जीव संसारवनविषै भ्रम है, उछ्वास लेय है, रोव है, पीडित होय है, खेदखिन्न होय है, सोवें है, रोष करै है, राग करें है, तप्तायमान होय है, लिखे है. क्रीड़ा करें है, व्यवहार कर है, सीवै है, नृत्य करें है, वा प्रकार अनेक चेष्टा करै है ॥१४॥ जनकस्तनयस्तनयो जनको, जननी गृहिणी गृहिणी जननी । भगिनी दुहिता दुहिता भगिनी, भवतीति बतांगिगणी बहुशः ॥ १५ ॥
अर्थ - पिता पुत्र होय है पुत्र पिता होय है माता स्त्री होय है स्त्री माता होय है बहन पुत्री होय है पुत्री बहन होय है सो बड़े खेदकी बात है । यहु जीव पूर्वोक्त प्रकार अनेकवार भ्रमै है ||१५|| कलिलजालवशः स्वयमात्मनो भवति यत्र सुतौ निजमातरि । किमपरं बत तत्र निगद्यते, विविधदुःखखनौ जननार्णवे ॥ १६ ॥
*
अर्थ - जा संसार समुद्र विष पापके समूह करि वश भया सन्ता जीव आप आपका पुत्र अपनी माताके गर्भ विषै होय बड़े खेदकी बात है ता संसार विषै और व्यवस्था कहा कहिए, कैसा है भवसमुद्र, नाना दुःखनिके उपजायवे की खान है ॥ १६ ॥
किमपि वेत्ति शिशुनं हिताहितं विरहदुःखमुपैति युवा पर । विकलतां भजते स्थविरस्तरां, भवति शर्म कदा बत संसुतौ ॥ १७॥