Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्रीअमितगति श्रावकाचार।
अर्थ-जा जलकरि रागादिभाव बढ़ाय करि हिसादिक पाप बढ़ाइए है ता जलकरि पाप कैसे नाश कोजिए, जातें जो वस्तुका वर्ण उपजावे विष समर्थ है सो ताका नाश करनेवाला न देख्या ॥३७॥ विनाश्यते चेत्सलिलेन पापं, धर्मस्तदानीं क्रियते किमर्थम । प्रारोहणं कोऽपि करोति वृक्षे, फले हि हस्तेन न लभ्यमाने ॥३८॥ _अथ–जो जलकरि पाप नाशिए तौ तपश्चरणादि धर्म काहेके अर्थि करिए जाते हाथमैं फल आये संते कोई वृक्षप चढ़े नाहीं ॥३८॥ माघेन तीवः क्रियते शशांको, ग्रीष्मेण भानुर्यदिनाम शीतः । देहस्तदानीं पयसा विशुद्धो, विधीयते दुर्वचगूथयूथः ॥३६॥
अर्थ-जो माघ मास करि चन्द्रमा तप्त कीजिए अर ग्रोष्म करि सूर्य शीतल कीजिए तौ जल करि शरीर विशुद्ध कीजिए। कैसा है शरीर निंदनीक विष्टादिक मलका पुज है ॥३६॥ सज्ञानसम्यक्तचरित्रतोयैविगाह्यमानैर्मनसाऽपि जीवः । विशोध्य मानस्तरसा पवित्रैर्न शुद्धिमभ्येति भवांतरेऽपि ॥४०॥
अर्थ-मन करि भी अवगाहे जे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप पवित्र जल तिन करि शीघ्र निमल किया जो जीव सो जन्मांतर विषं भी अशुद्धिताकौं प्राप्त नाहीं होय है।
भावार्थ-जलादि परद्रव्य नितें मिथ्यादृष्टि शुद्धिता मान है सो मिथ्या है तातै जीव तौ सम्यग्दर्शनादि आत्मपरिणामहीते शुद्ध होय है ॥४०॥
रन्ध्र रिवांबुविततेरुदधौ तरंडे, जीवे मनोवचनकायविकल्पजालैः। जन्मार्णवे विशति कर्म विचित्ररूपं, सद्योनिमज्जनविधाधि सुदृनिवारम् ॥४१॥
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