Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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' त्रयोदश परिच्छेद
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विनयेन विहीनस्य, व्रतशीलपुरः सरा। निष्फलाः संति निःशेषा, गुणा गुणवता मताः ॥४५॥
अर्थ-विनय करि हीन जो पुरुष ताके व्रत शील आदि समस्त गुण हैं ते निष्फल गुणवाननिके कहैं हैं ॥४५॥
विनश्यति सभस्तानि, व्रतानि विनयं विना । सरोरुहाणि तिष्ठति, सलिलेन विना कुतः ॥४६॥
अर्थ--सर्व व्रत हैं ते विनय विना नाशकौं प्राप्त होय हैं। जैसे जल विना कमल हैं ते कहां तिष्ठे, अपि तु नाहीं तिष्ठं है तैसे जानना ॥४६॥
निर्व तिस्तरसाऽवश्या, विनयेन विधीयते । पात्मनीनसुखाधारा, सौभाग्येनेव कामिनी ॥४७॥
अर्थ-विनय करि आत्माका हितरूप सुखकी आधारभूत जो मुक्ति अवस्था सो वेग करि कीजिए है। जैसे सोभाग्य पने करि स्त्री वश कीजिए तैसें विनय करि मुक्ति वश होय है ॥४७।।
सम्यग्दर्शनचारित्रतपोज्ञानानि देहिना । अवाप्यते विनीतेन, यशांसीव विपश्चिता ॥४८॥
अर्थ-जैसें पंडितजन करि यश पाईए है तैसें विनयवान पुरुष करि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये पाईए है ॥४८॥
तस्य कल्पद्र मो भत्यस्तस्य चितामणिः करे । तस्य सन्निहितो यक्षो, विनयो यस्य निर्मलः ।।४।।
अर्थ-जा पुरुषकै निर्मल विनय है ताका कल्पवृक्ष किंकर है अर ताके पाके हाथ विर्षे चिंतामणि है अर यक्ष ताके निकटवर्ती है ।
भावार्थ-विनयतें शुभ परिणामके वशतें पुण्यबंध होय है ताके उदयतें सर्व कल्पवृक्षादि पदार्थ सुखदाई होय परिणमै है ॥४६॥