Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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त्रयोदश परच्छेद
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अर्थ-सो वैयावृत्य करनेवाला सेवने योग्य होय है, दीर्घायु होय है, आदर करने योग्य होय है, उपद्रव रहित होय है सुन्दर अर प्रवीण अर प्रियवादी होय है ॥७३॥
स धार्मिकः स सदृष्टिः, स विवेको स कोविदः । स तपस्वी स चारित्रा, व्यावृति विदधाति यः ॥७४॥
अर्थ-जं वैयावृत्य करै है सो धर्मात्मा होय है, सो सम्यग्दृष्टि है सो विवेकी है सो पंडित है सो तपस्वी है सो चारित्रवान है।
भावार्थ-वैयावृत्य होत सन्तै सर्व धर्मके अंग होय हैं जाते वैयावृत्य नामा तप सब तपनिका सारभूत कह्या है ।।७४॥
ऐसें वैयावृत्रा तपका वर्णन किया। आगे-प्रायश्चित नामा तपका वर्णन करै है
आश्रित्य भक्तितः सूरि, रत्नत्रितयभूषितम् । प्रायश्चितं विधातव्यं, गृहीत्वा व्रतशुद्धये ॥७॥
अर्थ-दर्शन ज्ञानचारित्र रूपी रत्नमय करि भूषित ऐसा जो आचार्य ता प्रति भक्तितै प्राप्त होय करि व्रतनिकी शुद्धताके अथि प्रायश्चित ग्रहण करि आचरण करना योग्य है ॥७॥
न सदोषः क्षमः कतुं, दोषाणां व्यपनोदनम् । कर्दमाक्तं कथं वासः, कर्दमेन विशोध्यते ॥७६॥
अर्थ-सदोष पुरुष है सो दोष दूर करनेकौं समर्थ नाहीं, जैसे कीच करि लिपट्या वस्त्र कीचकरि कैसे सोधिये ।
भावार्थ-निर्दोष गुरु ही दोष दूर करके शुद्ध करै है, सदोष गुरुतै दोष दूर होय नाहीं ॥७६॥
दोषमालोचितं ज्ञानी, सूरिरीशो व्यपोहितुम् ।
अज्ञानेन न वैद्य न, व्याधिः क्वापि चिकित्स्यते ॥७॥
पर्थ-आलोचित कहिए शिष्यनें कह्या जो दोष ताहि ज्ञानवान् आचार्य दूर करनेकौं समर्थ है, जातें अज्ञानी वैद्य करि रोगका इलाज कहाँ न कीजिए है, रोगका ज्ञाता होयगा सो इलाज करैगा ॥७७॥